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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६० बहुतहि श्रेष्ठ उच्च कोटिके विद्वान और कवि हूवे हैं, वो भी जिणोके प्रत्यक्ष सन्मुख शिष्यत्व भावकों प्राप्त होवें ऐसे, और विशेषसें इन्द्र शुक्राचार्य सुरगुरु आदिदेवभि श्रुतसमुद्रके विषयमें जिणोंके सामने अल्पबुद्धिवाले होते है, और गौतम सुधर्म जम्बुप्रभवादि अवतार, और " तित्थरसमो सूरि जो सम्मं जिणमयं पया मेहत्ति वचनात्" तित्थंकर समान श्रुतसमुद्रके पारंगामी, कलिकालसर्वज्ञ प्राकृतके अंतिम महाकवि इस लिये प्रधान ज्ञान शक्तिसें और महाकवित्व शक्तिसें अर्थात् महाकवित्वकी प्रधान सुगंधिसें, श्रीजिनवल्लभगणिवाचनाचार्य श्रीचित्रकूट नगरमें सर्वत्र प्रकर्षपणे प्रसिद्ध होते हूवे' वादमें सर्वपरदर्शनवाले ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र ४ वर्णवाले लोक आणे शरु हूवे, और जिस जिसकुं जिस जिस शास्त्रविषयमें संशय उत्पन्न होवे, वो सबहि लोक उस उस शास्त्रविषयी संदेहकुं विनयसहितभक्तिपूर्वक पूछे श्रीजिनवल्लभगणिभी सूर्यकी तरह सर्वत्र भन्योंके अंत:करणोंमें विशिष्ट उपदेशद्वारा प्रवेश करके सर्व संदेहरूप अंधकारकुं नाश करते भये, चित्रकूटनगरके श्रावक भी धीरे धीरे थोडे थोडे आणे लगे, वादमें श्रावकोंने सत्यार्थ आगमवाणी सुणके, आगम अनुसारे सत्य क्रिया भी देखके, बहुतसें श्रावकोंने और अन्यदर्शनवाले ४ वर्णके लोकोंनें अपणे निजगुरुपणे श्रीजिनवल्लभ गणिवाचनाचायको स्वीकारकरे और साधारण सुदर्शन सुमति पल्हक वीरक मानदेव धंधक सोमिलक वीरदेव आदि श्रावकोंने सादर संतोष विनय बहुमान भक्तिसहित विधिपूर्वक समाघि सम्यक्तसहित निजनिजशक्ति अनुसार अणुव्रत, गुणवत, शिक्षावत, रात्रिभोजनविरमणव्रत, For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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