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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३० मनुष्य जानता है उस कथितमार्ग में थोड़े लोग लगे हैं बहुत लोग विश्वास नहीं करते हैं ॥ ९३ ॥ अन्ने अण्णत्थीहिं सम्मं, सिवपहमपिच्छरेहिंपि । सत्था सिवत्थिणो चालियावि, पडि पडिया भवारपणे ९४ अर्थ:--और केचित् अन्यार्थियोंके साथ शिवपथकी अपेक्षा करते हुए भी शिवार्थी सार्थ चलाहुआभी भवारण्यमें गिरे ॥ ९४ ॥ परमत्थ सत्थ रहिए, भव सत्थेसु मोह निद्दाए । सुत्तेसु मुसिजंतेसु, पोढ पासत्थ चोरेहिं ॥ ९५ ॥ अर्थः- परमार्थ शस्त्ररहित भव्य प्राणीका साथ मोहनिद्रा करके सोते भएको प्रौढ़ पार्श्वस्थ चोरों ने लूटेभए ऐसे ॥ ९५ ॥ असमंजसमे आरिस, मवलोइअ जेण जाय करुणेण । एसा जिणाणमाणा, सुमरिया सायरं तहआ ॥ ९६ ॥ अर्थः- पूर्वोक्त ऐसा असमंजस देखके उत्पन्न भई हैकरुणा जिसको ऐसा उसवक्त में आदरसहित तीर्थंकरोंकी आज्ञाका स्मरण कराया जिन्होंने ऐसे ॥ ९६ ॥ सुहसीलतेण गहिए, भव पल्लितेण जगडि अमणाहे । जो कुणइ कूजियत्तं, सोवण्णं कुणई संघस्स ॥ ९७ ॥ अर्थ :- सुखशील चोरोंने ग्रहणकिया भवरूपपल्लीके मध्य में अनाथ प्राणियों को रोकके रक्खे जिसमें ऐसा जो पुकार करे वह संघ में प्रशंसा पावे ॥ ९७ ॥ तित्थयर रायाणो, आयरिआरक्खिअब तेहिं कया । पासत्थ प्रमुह चोरो, बरुद्ध घण भव सत्थाणं ॥ ९८ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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