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श्रावकको एक व्यन्तर निरंतर बहुत तकलीफ देताथा उसके पुण्यसेही आचार्य वहांआए उस श्रावकने अपने शरीरका स्वरूप कहा श्रीपूज्योंने विचार किया कि यह मंत्रतंत्रोंसे साध्य नहीं है वादगणधर शप्ततिका बनाके टिप्पनकमें लिखाके व्यन्तर ग्रहीत श्रावकके हाथमें वह टिप्पन दिया और कहा इस टिप्पनमें दृष्टि रखना उसने वैसाही किया जितने वह व्यन्तर जादापीडा देनेके वास्ते आया परन्तु खट्वाके पासतकरहा शरीरमेंनहींप्रवेश करसका गणधरशप्ततिकाका हृदयमें निवेशदर्शनप्रभावसे दूसरे दिन दरवजेकीसीमातकआया तीसरेदिन आयाहीनहीं श्रावक खस्थ हुआ अर्थात् समाधि हुई वादमें विहार करके रुद्रपल्ली पहुंचे परिवारसहितजिनशेखरउपाध्याय और श्रावकलोगसामने आए विस्तारविधिसे प्रवेशउत्सव किया वादमें आचार्यने धर्मोपदेशदिया वहां श्रीजिनवल्लभसूरिजीके उपदेशसे उपदेशपाएहुए एकसोवीस (१२०) कुटुम्बके लोग रहतेथे उन्होंने श्रीऋषभदेवस्वामी और पार्श्वनाथस्वामीका २ मंदिर बनवाए थे उन्होंकी प्रतिष्ठा करी वहां कितनेक सम्यक्त्वधारी हुए और कइयोंने श्रावककाव्रतग्रहण किया और कितनेक देवपालगणी वगेरेहाने सर्वविरति पना स्वीकार किया इस प्रकारसे उन्होंके समाधान उत्पन्न करके जयदेव आचायोंको यहां भेजेंगे ऐसा कहके और पश्चिमदेशतरफ विहार किया वहांसे पश्चिम वागड़देशमें आए व्याघ्रपुर नगरमें आके रहे और श्रीजयदेव आचार्यको रुद्रपल्ली भेजे सब व्यवस्था समझाके, वहां रहे हुवे श्रीजिनवल्लभसरिप्ररूपित श्रीजिनचैत्यविधिस्वरूप चर्चरीग्रन्थ
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