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३७७ जहिं उस्सुत्तजणकमु कुवि किरलोयणेहिं । कीरंतउ नवि दीसइ सुविहियलोयणिहि ॥ निसि न ह्राण न पठन साहुसाहुणिहिं । निसि जुवइहिं न पवेसु न न विलासिणिहिं ॥१ वलि अथिमियइ दिणयर जहिं नवि जिणपुरओ। दीसइ धरिउ न जुत्तइ जहिं जणि तूरउ । जहिं रयणिहि रहभमणु कयाइ न कारियइ । लवु डार सुह जहिं पुरि सुविहित पमुहाइ ॥२ जहिं सावय तंबोल न भक्खइ हिलिंति न य। जहिं पाणहिय धरति न सावय सुद्धन य ॥ जहिं भोयणु नवि भक्खइ न अणुचिय भणओ। सहु पहरणि न पवेसु न पुट्टउं चुल्लणओ ॥ ३ जहिं न हासु नवि हुडु न खिडडु नरूसणओ। कित्ति निमित्त न दिजइ जहिं धणु अप्पणओ ।। कि २जहिं बहु आसायण जहिंति नाम लिहिं । मिलिय केलि करिंतिसमणु महि लियेहिं ॥४ अर्थ-जहां उत्सव करनेवालेलोगोंका क्रम कुत्सित नेत्रों करके करतेहुए सुविहित विधि मागको नहीं देखते हैं सुविहितविधिमार्गमें रात्रिमें स्नान नहीं करना और साधु साध्वियोंका परस्पर रात्रिमें पठन नहीं और रात्रिमें स्त्रियोंका जिनमंदिरमें प्रवेश नहीं और वेश्यायोंका मंदिरमें नाटक नहीं ॥ १ और सूर्य अस्त होनेके बाद तीर्थकरके आगे वलियाने
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