Book Title: Jinduttasuri Charitram Purvarddha
Author(s): Chhaganmalji Seth
Publisher: Chhaganmalji Seth

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Page 417
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७९ चरणागगणि ८ वा. रामचन्द्रगणि ९ वा. भाणचन्द्रगणि १० तथा ५ महत्तरा करीं श्रीमती महत्तरा १ जिनमती महत्तरा २ पूर्णश्रीमहत्तरा ३ जिनश्रीमहत्तरा ४ ज्ञानश्रीमहत्तरा ५ तथा हरिसिंहाचायोका शिष्य मुनिचन्द्रनामका उपाध्याय था उसने श्रीजिनदत्तसूरिजीसे प्रार्थना करीथी जो कोई मेरा शिष्य योग्य आपके पासमें आवे उसको आचार्यपद देना श्रीपूज्योंने यह वचन अंगीकार कियाथा वाद मुनिचन्द्रउपाध्यायका शिष्य जैसिंहनामका आचार्यपदमें स्थापा उसकाभी शिष्य जैचन्द्रनामका था उसको पत्तनमें समव सरणमें आचार्यपदमें स्थापा दोनोंके आगे पूज्योंने कहा हमारी कहीहुई रीतिमें अवतुझारेप्रवर्तना आत्मकल्याणकरना इस प्रकारसे पद स्थापना करके उन्होंको सिखावन देके सबोंको विहारादिस्थान कहके स्वयं आप अजमेरआए, वहां श्रावकोंने तीन जिनमंदिर और अंबिकाका स्थान पर्वतपर तय्यारकराया है वाद श्रीजिनदत्तसूरिजीने शोभनलग्नमेंमूलमंदिरोंमें वासक्षेपकिया इधरसे श्रीविक्रमपुरमें सहियापुत्र श्रीदेवधरने श्रीजिनदत्तसूरिजीने भेजा चर्चरी नामकापुस्तकके वांचनेसेजाना है सद्दर्शनकारी विधिबोध जिसने पनरे अपना कुटुम्ब श्रावक समुदाय करके अपना पिता और आसदेवादिकसे कहा भो श्रावको मेरेको यहां श्रीजिनदत्तमुरिजीको विहार कराना है अर्थात् मैं विनतीकरकेयहां लाउंगा देवधरके आगे कोई कुछभी नहीं बोल सकता है श्रावक समुदायके साथ विक्रम पुरसे देवधर रवाने होके नागौर आया है उस वक्तमें वहां श्रीदेवाचार्य विशेषकरके प्रसिद्धि पात्ररहतेथे For Private And Personal Use Only

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