Book Title: Jinduttasuri Charitram Purvarddha
Author(s): Chhaganmalji Seth
Publisher: Chhaganmalji Seth

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Page 406
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६८ उत्सूत्र भाषणकरनेसे अनन्तसंसारपरिभ्रमणकरना होता है तो ऐसे बहुत लोग इकट्ठे होनेसे क्या होवे है केवल भवभ्रमणही होवे है जैसे खग्रोगी पुरुषको बहुतमक्षियोंका संगहोवे तो क्या होवे अपि तु रोगवृद्धि होवे इसीतरह उत्सूत्रभाषण करनेसे संसारवृद्धि होवे है ॥२॥ ऐसा मत जानो कि बहुतपरिवारवाला मनुष्यलोकमें पूज्यता पावे है किंतु जिस कारणसे बहुत पुत्रयुक्त सूकरी विष्टा खाती है इसवास्ते जिनआज्ञासे विरुद्ध करनेवाला क्या प्रशंसनीय होवे है अपि तु नहीं होवे है ॥३॥ ऐसा अत्यन्त कर्णकटुक दुःखउत्पादक वचन धनदेवके भया तथापि गुरूको तो युक्तही कहना उहितहे कहाभी है। "रुशउवा परो मा वा, विसं वा परियत्तउ, भासि अवा हियाभासा, सपख्क गुणकारिआ" ॥१॥ अर्थः-सुननेवाला नाराज होवे या न होवे परन्तु भासा ऐसी कहनी चाहिये जिसका परिणाम विषपरावर्तन होके अमृतका परिणाम होवे स्वपक्षगुणकारिणी बाधारहित होवे अर्थात् सिद्धा. न्तसे विरुद्ध नहीं होवे ॥१॥ ऐसा सिद्धान्तप्रमाणसे आचार्यने कहा तब कितने विवेकी लोगोंने वचन प्रमाण किए और कितने मध्यस्थ रहे वाद नागपुरसे अजमेर तरफ विहार किया क्रमसे अजमेर आए वहां आशधर साधारण, रासल वगैरहः श्रावक रहते हैं श्रीजिनदत्तसूरि देववन्दनाके अर्थ वाहणदेव श्रावकका बना हुआ जिनमंदिरमें जाते हैं For Private And Personal Use Only

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