Book Title: Jinduttasuri Charitram Purvarddha
Author(s): Chhaganmalji Seth
Publisher: Chhaganmalji Seth

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Page 408
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७० एषोऽत्यर्थ क्षिपति बहुभिर्लोकवाक्यः प्रियो मामित्यो राड् भ्रमति भुवनं कीर्तिरस्ताश्रया ते” ॥२॥ अर्थ:-हे राजेन्द्र सब जगतकी रचना स्थिति और प्रलयके कारण ऐसे ये ब्रह्मा विष्णु शंकर तुमारे सम्पदाके लिए हो ॥१॥ हे राजन् नीति चित्तमें बसे है अतिशय विश्रांति पाई है प्रयत्नसे जिसने और लक्ष्मी जिसके अंगमें रहती है और पराक्रम श्रीने दोनों भुजका आश्रय किया है बहुतलोगोंके वाक्यसे यह अर्ण राजा अत्यर्थ मेरी प्रेरणा करता है प्रिय ऐसा मानके कीर्ति तुह्मारा आश्रय नहीं मिला है जिसको ऐसी जगतमें फिरती हैं इसका क्या कारण है ॥२॥ इत्यादि सद्गुरुके मुखकमलसे निकली भई वाणी सुनके राजा संतुष्टमान हुआ और बोला आप कृपा करके निरंतर यहां ही रहें दर्शनका लाभ होगा, गुरु बोले महाराजने ठीक कहा परन्तु हमारी यह स्थिति है कि हम सर्वत्र विहारकरते हैं लोगोंके उपकारके लिए यहां पुनः पुनः आवेगें जैसे आपके समाधान होगा वैसा करेगें वादमें राजा प्रसन्न होके उठे आचार्यको नमस्कार कर के स्वस्थान गए वाद पूज्योंने ठकुर आशधरसे कहा यथा "इदमन्तरमुपकृतये, प्रकृतिचला यावदस्ति संपदियं । विपदि नियतोदयायां, पुनरुपकर्तुं कुतोऽवसरः" ॥१॥ __यह संपदा स्वभावसे चपल है इससे उपकार होवे तवही इसका फल है इसलिए सुकृतमें इसका नियोग करना अर्थात् लगाना प्राणियोंकी आपदाका उद्धार करना जीवरक्षादि प्रकारमें इसका व्यय करना उचित है ॥१॥ For Private And Personal Use Only

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