Book Title: Jinduttasuri Charitram Purvarddha
Author(s): Chhaganmalji Seth
Publisher: Chhaganmalji Seth

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Page 407
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६९ अन्यदा वहांका आचार्य उसी चैत्यमें आया पर्यायसे छोटा है वह आचार्य चैत्यमें आए हुए जिनदत्तसूरि का व्यवहार नहीं करे तब ठकुर आशधर वगेरेह ने कहा यहां जिनमंदिरमें आनेका क्या फल है जो युक्त प्रवृत्ति न होवे वादमें देव वन्दनादि व्यहवार निवृत्त हुआ तब श्रावकों ने अरण राजसे विनती किया हेमहाराज हमारे गुरु श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराज यहां पधारे हैं राजा बोले बहुत श्रेष्ठ है हमारे योग्य कार्य हो सो कहो तब श्रावकों ने कहा हे देव कितनीक जमीन चाहिये है जिसमें जिनमंदिर वगैरह देवस्थान बनाए जावे और अपने कुटुम्बके रहने के लिए घरभी बनाया जावे, वाद अरणराजने कहा दक्षिणदिग्भाग में जो पर्वत है उसपर जितनीजमीनचाहिये उतनी लेलो देवघर वगैरह वहां निशंक बनाओ. अपने गुरूका मेरेको दर्शनकराना यह स्वरूप आचार्यके आगे श्रावकोंने कहा आचार्य विचारके बोले अहो जो इस प्रकारसे हमारे दर्शनकी उत्कंठावाला है राजा उनको बुलानेसे गुणहीहोगा वाद गुरुका वचनके अनुकूल हुए श्रावकोंने भव्यदिनमें अर्णराजाका आमन्त्रण किया राजा शीघ्र आए श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराजको राजाने नमस्कार किया आचार्यने आशीर्वाद देके अभिनन्दित किया वह आशीर्वाद यह, हैं— "विश्वविश्व विनिर्माण स्थितिप्रलयहेतवः । संतु राजेन्द्र भूत्यै ते, ब्रह्मश्रीपतिशंकरा: " ॥ १ ॥ तथा - " नीतिश्चित्ते वसति नितरां लब्धविश्रांतिरुच्चैः श्रीरस्याङ्गे भुजयुगलमप्याश्रिता विक्रमश्रीः । २४ दत्तसूरि० For Private And Personal Use Only

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