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अर्थ:-निर्मलगुणवाले चक्रवाकभी अर्थात् ज्ञानादिगुणयुक्त ऐसे सर्वथा दूर होगए थे उन्होंको मिलाया परिभ्रमण करनेवाले ऐसे भ्रमरोंके जैसे साधुओंका सम्बन्ध किया ऐसे ॥ १२९ ॥
भव जण जग्गिय, मवग्गियं दुट्ट सावय गणेण । जलमवि खंडियं, मंडियं य महिमंडलं सयलं ॥ १३० ।।
अर्थः-भव्यप्राणियोंको जगाया और चैत्यवासी श्रावकसमुदायने नहीं खंडन किया अर्थात् खंडन नहीं करसके जिसपर हाथ रक्खे उसका जाड्य नष्ट हो जाय ऐसे संपूर्ण पृथ्वीमंडलको शोभित करनेवाले ऐसे ॥ १३० ॥
अस्थमई सकलंको, सया ससंको विदंसिय पओसो। दोसोदये पत्तपहो, तेण समं सो कहं हुजा ॥ १३१ ॥
अर्थः-सदा कलंकसहित दिखाया है प्रदोष जिसने ऐसा चन्द्रभी अस्त होता है और रात्रिमें प्रकाश होता है जिसका ऐसे चन्द्रके समान वह कैसा होवे ऐसे ॥ १३१ ।।
संजणिय विही संपत्त गुरुसिरी जोसया विसेस पयं । विण्णुव किवाण करो, सुर पणओ धम्मचक्कधरो १३२
अर्थ:-प्रचलित किया है विधिः वाद जिनोंने पाई है युगप्रधानपदरूप लक्ष्मी जिनोंने ऐसा जो निरंतर विष्णुके जैसा दया और आज्ञाका करनेवाला देवोंकरके वंदित ऐसा क्षमादि धर्मचक्रको धारनेवाला ऐसा ॥ १३२॥ दसियवयणविसेसो, परमप्पाणं य मुणइ जो सम्म। पयडि विवेओ छच्चरण, सम्मओ चउमुहुच जए ॥१३३॥
संजणिय किवाण करी है विधिः वादतर विष्णुके
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