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अर्थः-दिखाया है वचन विशेष परमात्मको अच्छीतरहसे माने ऐसा जो और प्रगट है विवेक जिसका षट्चरण नाम षवतरूप जो चारित्र वह है संमत जिसके चतुर्मुखके जैसा ॥ १३३ ॥ धरइ न कवडुयं पि कुणइ, न वंधं जडाण मवि कयाइ । दोसायरं य चकं, सिरंमि न चडावए कयापि ॥ १३४ ॥ __ अर्थः-एक कौड़ीभी नहीं धारै मूर्योका कभी भी संग्रह नहीं करे दोषाकर याने चन्द्र और चक्रको मस्तकपर नहीं धारे श्लेशार्थ है ॥ १३४ ॥
संहरइ न जो सत्तो, गोरीए अप्पए नो नियमगं । सो कह तविवरीएण, संभुणा सह लहिज्जु पमा ॥१३५॥
अर्थ:-जो प्राणियोंका संहरण न करे गौरीको अपना अंग नहीं देवे वह कैसे निर्मल चारित्र करके शंभुकी उपमाको प्राप्त होवे ऐसा ॥ १३५ ॥
साइसएसु सग्गं गयेसु, जुगप्पवरसूरिनिअरेसु । सबाओ विजांगाओ, भुवणं भमिऊण स्संताउ ॥१३६॥
अर्थः-सातिशई युगप्रधान आचार्योंका समूह स्वर्ग जानेसे सर्व विद्या अंगना जगत्में फिरके श्रांत भइ ॥ १३६ ॥
तह वि न पत्तं पत्तं, जुगवं जवयणपंकएवासं। करिय परुप्पर मचंत, पणयओ हुंति सुहिआओ १३७
अर्थः-तथापि पात्र नहीं पाया युगपद् जिसके मुख कमलमें निवास करके परस्पर अत्यन्त प्रीतिसे सुखी भई ॥ १३७ ॥
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