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अणुण्ण विरह विरोह, तत्तगत्ताओताओ तणाइओ । जायाओ पुण्णवसा, वासपर्यं पिजो पत्ता ॥ १३८ ॥
अर्थ :- परस्पर विरहसे पीड़ित दुःख परंपरासे तपाहुआ शरीर ऐसी वह दुर्बल अंगवाली भई तथापि पुण्यके वससे अपने निवासका स्थान पाया ॥ १३८ ॥
तं लहिअ विअसिआओ, ताओ तवयण सररुह गयाओ । तुट्ठाओ पुट्ठाओ, समगं जागाओ जिट्ठाओ ॥ १३९ ॥
अर्थः- जिनवल्लभरिको प्राप्त होके हर्षित भई विद्या अंगना उन्होंके मुखकमलमें गई संतुष्ट भई पुष्टभई एकही वक्तमें बड़ी होई ॥ १३९ ॥
जाया कइणोकेके, न सुमहणो परे मिहोवमं तेवि । पावंति न जेण समं, समंतओ सब कवण णिउं ॥ १४०॥
अर्थ :- कवि पृथ्वीपर कौन कौन न भए परन्तु यहां जिस प्रभुके साथ उपमा नहीं पावे है सम्यक बुद्धिवाले सर्व काव्यके नेता ऐसे || १४० ।।
उवमिते सन्तो, संतोसमुवचिंति जंमि नो सम्मं । असमाण गुणो जो होइ, कहणु सो पावए उवमं ॥ १४१ ॥ अर्थ :- सज्जन जिसमें उपमान कर्ता सम्यक् संतोष नहीं पावे है कारण समानगुण जो न होवे वह उपमा कैसे पावे ॥ १४१ ॥ जलहिजलमंजलीहिं, जो मिणइ नहं गणं विहु पए हिं । परिचकमह सोवि न सक्कइत्ति, जा गुण गणं भणिउं १४२
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