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नायकगुरु धर्माचार्य उन्होंके चरणकमलको पार्क मैं गीतार्थोका अनुसरण करनेवाला भया ।। १४६ ॥
तमणुदिणं दिष्णगुणं, वंदे जिणवल्लहं पहुं प्पयओ । सूरिजिणेसरसीसोअ वायगो धम्मदेवो जो ॥ १४७ ॥ अर्थः- दिया है ज्ञानादि गुण जिन्होंने ऐसे जिनवल्लभसूरि प्रभुको निरंतर प्रयत्नसे नमस्कार करें और श्रीजिनेश्वररिके शिष्य वाचक धर्मदेव गणि और ॥ १४७ ॥
सूरीअसोगचंद्दो, हरिसींहो सङ्घदेवगणिष्यवरो । सवेवि तविणेया, तेसिं सबेसिं सीसोहं ॥ १४८ ॥ अर्थः- अशोकचन्द्रसूरि हरिसिंहसूर और सर्वदेवगणप्रवर सर्व जिनेश्वरसूरिके शिष्य धर्मदेवगणिके शिष्य उन सर्वोका मैं शिष्य हूं ।। १४८ ॥
ते मह स परमोवयारिणो वंदनारिहागुरुणो । कयसिवसुहसंपाता, तेसिं पाए सया वंदे ॥ १४९ ॥ अर्थ : - वह मेरे सर्व परम उपगारी नमस्कार करने योग्य गुरु आराध्य हैं किया है शिवसुख संपात जिन्होंने ऐसे उन्होंके चरणों में मैं निरंतर नमस्कार करूं ॥ १४९ ॥
जिणदत्तगणि गुणसयं, सपण्णयं सोमचंदबिंबं व । भवेहिं भणिज्जंतं, भवरविसंताव मवहरउ ॥ १५० ॥ अर्थः- जिनदत्तगणि गणधर उन्होंके गुणग्रहणरूप डेढ़ सौ (१५०) गाथाका यह प्रकरण पौर्णमासीके चंद्रबिंबके जैसा शीतल स्वभाववाला भव्यों करके पठ्यमान नाम पढ़ते गुणते सुनते भव
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