Book Title: Jinduttasuri Charitram Purvarddha
Author(s): Chhaganmalji Seth
Publisher: Chhaganmalji Seth

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Page 374
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३६ नहीं होवे उन्होंका दर्शनभी प्रतिक्षण जीवोंके मिथ्याल उत्पन्न करे है ॥ १२० ॥ धम्मत्थीणं जेण, विवेयरयणं विसेसओ वि। चित्तउडे हिआणं, जं जणइ भवाण निवाणं ॥१२१ ॥ अर्थः-धर्मार्थी प्राणियोंके जिसने विवेकरनविशेषकरके चितौड़नगरमें रहेहुये हृदयरूप पात्र में स्थापा जो विवेकरत्न निर्वाणमुक्तिसुख भव्योंके उत्पन्न करता है ॥ १२१ ॥ असहाएणावि विहिय, साहिओ जो न सेससूरीणं । लोअणपहे वि वच्चइ, वुच्चइ पुण जिणमयण्णूहि ॥१२२॥ अर्थः-सहायरहित होकेभी जिसने विधिः मार्ग साधा जो अगीतार्थ और आचार्योंके दृष्टिपथमें नहीं आया ऐसा जैनधर्मका जाननेवाला कहे है ॥ १२२ ॥ घण जणपवाह सरिआण, सोअपरिवत्तसंकटे पडिओ। पडिसोएण णीओ, धवलेणवसुद्धधम्मभरो॥१२३॥ अर्थः-बहुत लोगोंका प्रवाह जो नदी उसको जो धारानुकूल आवर्तरूप संकटमें पड़ाहुआ प्राणियोंको प्रतिश्रोतमें लाए शुद्ध धर्मको धारणेवाले धवलधौरेयके जैसे ॥ १२३ ॥ कयवहुविजुजोओ, विसुद्धलद्धोदओ सुमेघुव। . सुगुरुच्छाइय दोसायरप्पहो प्पहयसंतावो ॥ १२४ ॥ अर्थः-किया है बहुत विद्यारूप बिजलीका उद्योत उस्से विशुद्ध पाया है उदय ऐसा सुमेघसदृश सुगुरुने दोषाकर चंद्रकी प्रभाका आच्छादन किया और संतापको मिटाया ऐसे ॥ १२४ ॥ For Private And Personal Use Only

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