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एकस्तयोः सरिवरो जिनेश्वरः ख्यातस्तथाऽन्यो भुवि बुद्धिसागरः । तयोर्विनेयेन विबुद्धिनाप्यलं वृत्तिकृतैषाऽभयदेवसूरिणा ॥ ३ ॥ तयोरेव विनेयानां तत्पदं चानुकुर्वतां, श्रीमतां जिनचंद्राख्यसत्प्रभूणां नियोगतः ॥ ४ ॥ श्रीमज्जिनेश्वराचार्यशिष्याणां गुणशालिनां । जिनभद्रमुनींद्राणामस्माकं चांघिसेदिनः ॥ ५ ॥ यशचंद्रगणेर्गाद, सहाय्यात्सिद्धिमागता,
परित्यक्ताsन्यकृत्यस्य, युक्ताऽयुक्तविवेकिनः ॥ ६ ॥ व्याख्या - श्रीआचारंगसूयगडांगसूत्र की टीकाके अंत में - "इत्याचार्यशीलांक विरचितायां श्रीआचारांगटीकायां द्वितीयश्रुतस्कंधः समाप्तः इत्यादि, टीकाकार श्री शीलांकाचार्यमहाराजने लिखा हैं, किन्तु श्रीमहावीर स्वामीसें लेकर अपने सब पूर्वजों के नाम वा गुरु दादा गुरुके नाम तथा अपना निग्रंथ गच्छ कोटिकगच्छादिनाम या विशेषण नहिं लिखा है, इसी तरह श्रीठाणांगआदिनवांगसूत्रटीकाके अंत में श्री अभयदेवसूरिजी महाराजने भी श्रीमहावीरस्वामीसें लेकर अपने सब पूर्वजोंके नाम तथा निग्रंथगच्छ, कोटिकगच्छ, वज्रशाखाचंद्रकुल, बृहत् गच्छ, खरतरगच्छ, ६ ये सब नाम या विशेषण प्रायः नहीं लिखें हैं, किंतु किसी अज्ञके प्रश्न के उत्तर में कोई बुद्धिमान् संक्षेपप्रशंसा अपने कुलका नाम तथा उसमें अपने पितादादेका नाम जैसा बतलाता है वैसा नवांगटीकाकार श्री अभयदेवसूरिजी -
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