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जागते हैं परमार्थरक्षणके लिये शब्दको शब्दसेमिलाते हुए ऐसे ॥ ८९ ॥
नाणासत्थाणि धरंतितेओ, जेहिं वियारिऊण परं । मुसणस्थ मागयं, परि हरंति निजीव मिह काउं ॥१०॥
अर्थः-नानाप्रकारके शास्त्रोंको धारते हैं वे तो जिन्होंसे विचारके परको मोषणके अर्थ आया हुआ उनोंको निर्जीव करके छोड़ते हैं ऐसे ॥९०॥
अविणासिय जीवं ते, धरंति धम्म सुवंसन्निप्पण्णं,। सुक्खस्स कारणं भय निवारणं पत्त निवाणं ॥ ९१ ॥ अर्थः-अविनाशि जीव सवंशमें निष्पन्न हुए ऐसे वह धर्मको धारण करे है भय निवारण सुखका कारण निर्वाण पाया जिन्होंने ऐसे ॥९१॥
धरिय किवाणा केई, सपरे रक्खंति सुगुरु फरयजुआ। पासत्थ चोर विसरो, वियार भीयो न ते मुसई ॥१२॥ अर्थ:-केईक धारण किया है दया कृपारूप तलवार जिन्होंने और सद्गुरुरूप ढाल युक्त ऐसे स्वपरकी रक्षा करते हैं पार्श्वस्थरूप चौरोंका फैलाव विचारसे डराहुआ वह नहीं लूट सकते हैं ९२
मग्गुमग्गा नजंति, नेय विरलो जणो त्थि मग्गण्णू। थोवा तदुत्तमग्गे, लग्गति न वीससंति घणा ॥ ९३ ॥ अर्थः-मार्ग उन्मार्गको बहुत लोग नहीं जानते हैं कोई विरला
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