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श्रीवज्रसेनसूरिः, पद्मेन्दुः क्षेमकीर्तिसूरिश्व, रदविश्वते १३३२ वर्षे, विक्रमतः कल्पटीकाकृत् ॥ १४१ ॥ अथ हेमकलशसूरिस्तत्पद् मौलिर्गुरुर्यशोभद्रः, रत्नाकरस्ततोपि च, शिष्यो रत्नप्रभश्चाऽस्य ॥ १४२ ॥ मुनिशेखरस्तदीयः, शिष्यः श्रीधर्मदेवसूरिरपि, श्रीज्ञानचन्द्रसूरिः, सूरिः श्रीअभयसिंहश्च ॥ १४३ ॥ अथ हेमचंद्रसूरिर्जयतिलकाः सूरयस्ततो विदिताः, जिनतिलकसूरयोऽपि च, सूरिर्माणिक्यनामा च ॥ १४४ ॥ कालानुभाववशतः शाखापार्थक्यचेतसो ह्यधुना, सर्वे ते गुणवन्तो ददतां भद्राणि मुनिपतयः ॥ १४५ ॥
इस तरह श्रीजगचंद्रसूरिजीके दो शिष्योंसें दो शाखा निकली वृद्धशाखा और लघुशाखा पूर्वोक्तप्रमाणे इनका स्वरूप जाणना और श्रीमान् जगच्चंद्रसूरिजीको महातपाविरुद तथा चारित्र - स्वीकारविषयी यह ख्याति है, सो इस तरे श्रीभुवनचंद्रसूरिजी के वचनसें वस्तुपाल तेजपालकी उत्पत्ति भइ कालक्रमसें राजाके मंत्री भये वाद कुलक्रमागतमर्यादा साचवनेके लिये अपणे गच्छके उपाश्रयमे रहे वे श्रीदेवभद्रसूरिजी के सुशिष्य श्री जगच्चन्द्रसूरिजी शिथिलचर्या में विद्यमान थे, उनको वन्दनादि करने के लिये हरहमेस वस्तुपालमंत्री स्वपरिवारसहित जातेथे इसतरह कितनाक दिन - के बाद कोई एक दिनके समे भाविभावके वशसें अकस्मात् वन्दना निमित्त श्रीजगचंद्रसूरिजी के पास आया तिससमय श्रीजगचंद्रसूरिजीके पास में पण्यस्त्री बेठी थी इस तरहका अनुचित व्यवहार प्रत्य
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