Book Title: Jinduttasuri Charitram Purvarddha
Author(s): Chhaganmalji Seth
Publisher: Chhaganmalji Seth
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३२० पसमरइपमुहपयरण, पंचसया सक्कया कया जेहिं । पुव्वगयवायगाणं, तेसि मुमासाइ नामाणं ॥५०॥
अर्थ:-असमरतिः प्रमुख पांचसै प्रकरण जिन्होंने बनाया पूर्वगत श्रुतके वाचक ऐसे उमास्वातिः नाम वाचकके ॥ ५० ॥ पडिहयपडिवक्खाणं, पयडीकयपणयपाणिसुक्खाणं । पणमामि पायपउमं, विहिणा विणएण निच्छउमं ॥५१॥
अर्थः-दूरकिया है प्रतिपक्षजिन्होंने और प्रगटकियाहै नमस्कारकरनेवालेप्राणियोंको सुख जिन्होंने ऐसे उमास्वातिः आचार्यके विधियुक्तविनयसे निष्कपटहोके चरणकमलोंको नमस्कार करूं ॥५१॥
जाइणिमहयरिया, वयणसवणओ पत्तपरमनिवेओ। भवकारागाराओ, साहंकाराओ नीहरिओ ॥ ५२ ॥ अर्थः-याकिनीमहत्तराके वचन श्रवण करनेसे पाया परमवैराग्यजिसने ऐसे भवकारागारसेही अपने अहंकारसे निकले ऐसे ॥५२॥
सुगुरुसमीवोवगओ, तदुत्तसुत्तोवएसओ जोउ । पडिवन्नसधविरइ, तत्तरई तत्थ विहियरई ।। ५३ ॥
अर्थः-गुरुके समीपमें गए गुरूका कहाहुआ सूत्रकाउपदेशसे तस्वरुचिमें भई प्रीतिजिन्होंकी ऐसे सर्वविरति अंगिकार किया ऐसे ॥ ५३ ॥
गुरुपारतंतउपगत, गणियओवि मुणिय जिणमयंसम्म । मयरहिओ सपरहियं, काउमणो पयरणे कुणइ ॥५४॥
For Private And Personal Use Only

Page Navigation
1 ... 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431