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अर्थः- कोंकणदेशमें सोपारक नगरमें सुगुरूके उपदेशसे जिसने सुमिक्षकहके गुण से पूजित संघकाविघ्नदूरकिया ऐसा ॥ ३६ ॥
तमहं दसपुव्वधरं, धम्मधुराधरणं सेससमविरियं । सिरिवइरसामिसूरिं, वंदे थिरियाइ मेरुगिरिं ॥ ३७ ॥ अर्थः- दशपूर्वके धारनेवाले धर्मरूपधराकेधारने में शेषनागके जैसा है पराक्रमजिन्होंका ऐसे मेरुगिरी के जैसानिश्चल ऐसे श्रीवज्रस्वामीआचार्यको मैं नमस्कार करूं ॥ ३७ ॥
निअजणणिवयणकरणंमि, उज्जओ दिट्ठिवायपढणत्थं । तोसलिपुत्तंतगओ ढट्टरसढाणुमग्गेण ॥ ३८ ॥
अर्थः- अपनीमाता कावचन करनेमेंउद्यत दृष्टिवादपढ़नेके लिये तोसलिपुत्रआचार्य के पासमें गया ढड्डरश्रावकके साथमें उपाथयमें प्रवेश किया ॥ ३८ ॥ सड्डाणुसारओ विहिय, सयलमुणिवंदणो य जो गुरुणा । अकाणुवंदणो सावगस्स, जो एवमिह भणिओ ॥ ३९ ॥
अर्थः - श्रावक के अनुसारसे किया है सम्पूर्णमुनियोंकोवंदन जिसने और श्रावकको नहीं किया नमस्कार जिसने ऐसेको गुरुने इस प्रकार से कहा ऐसा ॥ ३९ ॥
को धम्मगुरु तुह्माणमित्थय तेणावि विणय पणएणं । गुरुणो निदंसिओ स ढदूरसढोवियट्टेण ॥ ४० ॥ अर्थ:- तुम्हारा धर्मगुरू यहांकौन है तब उसविचक्षणनेभी विनयसे नम्र होके, गुरूसे दिखाया यह ढट्टरश्रावक है ॥ ४० ॥
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