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श्रीभुवन चंद्रसूरिगुरुरुदियाय प्रवरतेजाः ॥ १ ॥ तस्य विनेयः प्रशमैकमंदिरं देवभद्रगणिपूज्यः, । शुचिसमयकनकनिकषो बभूव मुनिविदितभूरिगुणः ॥ २ ॥ तत्पादपद्मभृंगा निस्संगाचंगतुंगसंवेगाः । संजनितशुद्धबोद्धा जगति जगच्चंद्रसूरिवराः ॥ ३ ॥ तेषामुभौ विनेयौ श्रीमान् देवेंद्रसूरिरित्याद्यः | श्रीविजयचंद्रसूरिद्वितीयको ऽद्वैत कीर्तिभरः ॥ ४॥ स्वाsन्ययोरुपकाराय श्रीमद्देवेंद्रसूरिणा ।
धर्मरत्नस्य टीकेयं सुखबोधा विनिर्ममे ॥ ५ ॥
ये श्लोक श्रीजगचंद्रसूरिजीके मुख्यशिष्य श्रीदेवेंद्रसूरिजीने अपनी रची हुई श्रीधर्मरत्नप्रकरणकी टीका उसकी प्रशस्तिमें लिखे हैं इन श्लोकोंमें तथा श्रीजगचंद्रसूरिजी के शिष्य श्री विजयचंद्रसूरिजी उनके शिष्य श्रीक्षेमचन्द्रकीर्तिसूरिजीने संवत् १३३२ में श्रीबृहत् कल्पसूत्र - कीटीका रची है उसकी प्रशस्ति में भी चित्रवालगच्छ में श्रीधनेश्वरसूरिजी उनके शिष्य श्रीभुवनचन्द्रसूरिजी उनके शिष्य श्रीदेवभद्रगणिजी उनके शिष्य श्रीजगचंद्रसूरिजी इत्यादि लिखा है किंतु न तो अपना या श्रीजगचंद्रसूरिजीका बृहत्गच्छ ना तपगच्छ ऐसा नाम या विशेषण लिखा और न तो उनके गुरुका नाम -- श्रीमणिरत्न- सूरिजी लिखा और न तो श्रीजगच्चंद्रसूरिजीने जावज्जीव आचाम्ल तप किया लिखा और न तो संवत् १२८५ में अमुक राजाने तपगच्छनाम या तपगच्छ विरुद दिय लिखा तथा ३२ दिगंबर जैनाचार्यों को अमुक विवाद में जीतनेसे
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