Book Title: Jinduttasuri Charitram Purvarddha
Author(s): Chhaganmalji Seth
Publisher: Chhaganmalji Seth

View full book text
Previous | Next

Page 332
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २९४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनाभोगको दूर करनेके लिये तपगच्छनायक श्रीसोमसुंदरसूरिजी - के शिष्य महोपाध्याय श्री चारित्ररत्नगणिजी के शिष्य पंडित श्रीमत् सोमधर्मग णिजीमहाराजने स्वविरचित उपदेशसप्ततिका नामक महाप्रमाणिक ग्रंथ में लिखा है कि पुरा श्रीपत्तने राज्यं, कुर्बाणे भीमभूपती । अभूवन् भूतलाख्याताः, श्रीजिनेश्वरसूरयः ॥ १ ॥ सूरयोऽभयदेवाख्या, स्तेषांपदे दिदीपिरे । येभ्यः प्रतिष्ठामापन्नो गच्छः खरतराऽभिधः ॥ २ ॥ " भावार्थ - (पुरा) पूर्वकालमें याने संवत् १०८० में अणहिलपूर पाटण में दुर्लभ तथा भीमराजाके राज्य के समयमें चैत्यवासी यतियोंका सुविहित मुनियोंको शहरमें नहीं रहने देनेका बड़ाभारी व्यर्थ कदाग्रह ( ज़ोर ) को हटाने से और अत्यंत शुद्धक्रिया आचारसे खरेतरे याने खरतर विरुद धारक श्रीजिनेश्वरसूरिजी महाराज भूमंडल में प्रख्यात हुए । उनके पाटे जयतिहुअणस्तोत्र से श्रीस्थंभ पार्श्वनाथ प्रतिमा प्रगट कर्ता नवांग - टीकाकार श्री अभयदेवसूरिजी महाराज खरतरगच्छ में महाप्रभाविक हुए, जिनसे खरतर - नामकागच्छलोक में प्रतिष्ठाको प्राप्त हुआ । इत्यादि अधिकार लिखा है और श्रीप्रभावक चरित्रमें भी लिखा है कि जिनेश्वरस्ततः सूरिरऽपरो बुद्धिसागरः । नामभ्यां विश्रुतौ पूज्यै, विहारेऽनुमतौ तदा ॥ १ ॥ ददे शिक्षेति तैः श्रीमत्, पत्तने चैत्यवासिभिः । विघ्नं सुविहितानां स्यात् तत्राऽवस्थानवारणात् ॥ २ ॥ For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431