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बधरीकृतकाननजिसने और उत्कट मदोद्धत हाथीयोंका कुंभस्थलरूपतट गिरानेमें बहुतकठोरनखमुखहै जिसका ऐसे सिंहकों कोइ. वक्त पवनसे प्रेरित वृक्षोंके अग्रभागसैगिरेपत्र मात्रके शब्दसे अत्यंतभागते भये भयाहे अंगभंगजिनोंका ऐसै मृगोंसै क्या भयहोताहै अपितु नहिं, व्याख्याकार श्रीसुमति गणि कहते हैं हमारे गुरु श्रीजिनपतिमरिजी कि इसी अर्थमें अन्योक्ति है यथा
खरनखशरकोटिस्फोटिताग्रेभकुंभ,
स्थलविगलितमुक्ताराजिविभ्राजिताजिः। हरिरधिगरिमा किं तर्जितोऽ तर्जितो वा, ___ऽनिलचलदलपातत्वंगदंगैः कुरंगैः ॥१॥ अर्थ-कठोरनखरूपवाणों की कोटिके अग्रभागसै विदारण कियाहै कुंभस्थल जिसने उस्सै निकलीमोतियोंकिश्रेणिस सोभित पृथ्वी करि है जिसने जैसा हरिनाम केसरिसिंघ हे सो परवतके समीपकी भूमीमे वायुसै चलता पत्रोंके पातसै कूदते भये हरिणोंसै क्या तर्जित होता हे ॥१॥ वाद गणिजीने एक श्लोक भोजपत्रमें लिखके कोई विवेकीकों देके मिले भये ब्राह्मणोंमें मुख्यविपके पासभेजा तब उसब्राह्मणने श्लोककाअर्थ विचारके मनमें विचार किया वहवृत्तयह है मर्यादाभंगभीतेरमृतरसभवा धैर्यगांभिर्ययोगा
न्न क्षुभ्यंते च तावन्नियमितसलिलाः सर्वदैते समुद्राः। आहोक्षोभं व्रजेयुः कचिदपि समये दैवयोगात्तदानीं, नक्षोणी नाद्रिचक्रं न च रविशशिनौ सर्वमेकार्णवं स्यात् १
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