________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२७३
मिला कोइराजाका वर्णन आश्रयि समस्यापददिया वह यह है कुरंगः किंभृगोमरकतमणिः किंकिमशनिः वादजिनबल्लभगणिने उसीवक्त थोडा विचारके समस्या पूर्ण करी उसके आगे कही यथाचिरं चित्रोद्याने चरसि च मुखाजं पिबसि च,
क्षणादेणाक्षीणां विरहविषमोहं हरसि च । नृप त्वं मानादि दलयसि च किं कौतुककरः, _ कुरंगः किं भुंगो मरकतमणिः किं किमशनिः॥१॥
अर्थ-कोइकवि कोइराजासै कहता है हेराजन् बहुतकालतक विचित्रउद्यानमे स्वेच्छासै विचरतेहो और मुखकमलका पान करतेहो और मृगाक्षियोंका विरह हि विषमोहकुं दूर करते हो और शत्रुलोकोंका मानरूप पर्वतको तोडते हो यह आश्चर्यकारि क्या कुरंग हो (मृग) भुंग २ (भ्रमर) हो क्या, मरकतमणि हो क्या ३ अथवा क्या वज्र हो ४ इति ऐसा सुनके अत्यंतप्रमुदित होके समस्या पूच्छनेवाला विचक्षण बोलाअहो लोकोंमें जो प्रसिद्धि होति है वह निर्मूल नहिं होति है यह निश्चय है हेभगवन् आपकों जैसे सुने थे वैसेहि आपहें ऐसी गुणोंकी स्तुतिकरके नमस्कार करके स्वस्थानगया वादगुरु उपाश्रय आये श्रावकोंने पूच्छा हेप्रभो आज बहुतसमयकैसे लगा तब साथमें जो शिष्यगयाथा उसने सब बात कही सुनके सबश्रावकलोक बहुत हर्षित भये नेत्रकमलसुगुरुमाहात्म्यसूर्यसें विकसित भये उस समय गणदेव नामका एकश्रावक सुवर्णकाअर्थीथा जिनवल्लभगणिके पास स्वर्णसिद्धि है ऐसासुणके चित्रकूटस्थगुरुकेपासमेंआके सेवाकरणा सरू किया
१८ दत्तसूरि०
For Private And Personal Use Only