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Achar
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वांचा उस लेखमें यह लिखा हुवा था, कि जिनवल्लभगणेः केचिच्छ्रद्धास्ते वशंनीताः सन्ति, क्रमेण सर्वानपि वशीकरिज्यामः इति मनोवृत्तिरस्ति, जिनवल्लभगणिके भक्त कितनेक श्रावकोंको हमने अपणे वशमे करें हैं, और धीरे धीरे क्रम. करके सबहिको हम अपणे वश करेंगें, यह हमारे मनकी धारणावर्ते है, और इहांपर ऊपरोक्त विषयके लिये वृत्तिकार लिखते हैं कि, अयं चार्थो विरुद्धत्वात् यद्यपि शास्त्रीपनिबंधयोग्यो न भवति, तथापि चरितोपरोधादुक्तमिति, यह अर्थ ( कार्य) विरुद्ध होणेसें जो कि शास्त्रमे लाणे योग्य नहिं है, और लेखके
और शास्त्रके कोई संबंध नहिं है, तोभी चरितानुवादके उपरोधसे कहा है ऐसा जाणना, वादमें श्रीजिनवल्लभगणिजीने, लेखका दो खंड करके कहा एक श्लोक सो यह है,
आसीजनः कृतघ्नः,
क्रियमाणनस्तु सांप्रतं जातः । इति मे मनसि वितर्को,
भविता लोकः कथं भविता ॥१॥ व्याख्या-प्रथमहिसें लोक किये हूवे उपगारकुं हणनेवाले थे, और वर्तमान कालमेभी किये हुवे कार्यको नहि मानते हैं ऐसा मेरे मनमें विचार भया है लोककी क्या दशा होगी क्या होनेवाला है ॥ १॥ ऐसा कहके बोले अहो ऐसे अशुभ अध्यवसायवाले तुम हो वाचनालेने सैसरा वादविमुखहोके स्वस्थान गये उहां न रहे चले गये, कदाचित् श्रीजिनवल्लभगणि बहिर्भूमी जाते थे तब कोइ विचक्षण पांडित्यकी प्रसिद्धी सुनके मार्गमे
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