________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२७०
होगा किंचित् , अर्थात् कुछपरिज्ञानहै, वाद ब्राह्मण आक्षेपसहित बोला कि, तो आप कहो, तव वाचनाचार्य श्रीजिनवल्लभगणिजीभी उत्साहसहित हुवे थके बोले, कि हे विप्र कहो, कितने लग्न कहुं, दश अथवा वीस लग्न कहुं, यह वचन सुणके उस ब्राह्मणकों आश्चर्य हुवा, उतने दश-वीस संख्यक लग्नोंकुं जलदिसे कहके, फेर आचार्यश्रीनें कहा, हे विन आकाशमंडलमें दोय हाथ प्रमाणे वादल है, उसको तुम देखतेहो, ब्राह्मण बोला कि हे भगवन् देखताई, वाचनाचार्यश्रीनें कहा, हे विप्र कहो कितने प्रमाणे जल डालेगा, वादब्राह्मण नहिं जानता हुवा, शून्य नजरसें दिशाकों देखता रहा है, उतनें आचार्यश्रीनें कहा, हे विप्र ? सुणो, दोय घडीवाद यह वादल दोय हाथ प्रमाणकाभी दोय घडीके अन्दर अन्दर संपूर्ण आकाशमंडलकुं व्यापके, उतनी वर्षात करेगा, जितने जलकर दोय भाजनपूरा भराजाय उतनेप्रमाणे वर्षात होगा याने जलगिरेगा, वादमें वहांहि बेठा हुवा उंचा आकाशकी तरफ मुख है जिसका ऐसा वह ब्राह्मणके सन्मुख सर्व वैसाहि जलकावरसात हुवा, बादमे वह ब्राह्मण ललाटमे दोनुं हाथकुं जोडके, अहो यह बड़ा आश्चर्य है, अहो ज्ञानं अहो ज्ञानं, यहहि ज्ञान है यहहि ज्ञान है, अर्थात् इसीका नाम सत्यज्ञान कहते हैं, इसतरह मुखसे कहता हुवा, मस्तकको धूणता हुवा, पूज्य आचार्यश्रीके चरणों में पडा, और मुखसे कहेणें लगा कि, जबतक में इहांपर रहुंगा तबतक निश्चे आपश्रीके चरणकमलोंमे नमस्कार करके, भोजन करुंगा, अभिमानसहित होणेकर हे भगवन् मेने आपश्रीको इसतरहके ज्ञानी नहिं जाणेथे, वाद
For Private And Personal Use Only