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और देव गुरुके प्रसादसें दोनुं मन्दिर तइयार भये, वहां मंदिर में ऊपरके मजल में श्रीपार्श्वजिनमंदिर और नीचेके मज्जलमें श्रीभव्योंके नेत्रोंको और मनको हरणेवाला अतिशय उंचा शिखर बद्ध तोरण सहित सोनेमयी दंडकलशोकी परंपरा और प्रभामंडलसें खंडन करा है अत्यंत गाढअंधकार जिसनें ऐसा ५२ जिनालय श्रीमहावीर जिनका मंदिर कराया, वादमें श्रीजिनवल्लभगणि वाचनाचार्यजीनें विस्तारसें सर्व विधिपूर्वक बडे उपनिषा करी
सर्वत्र प्रसिद्धि भइ, अहो येहि गुरुहैं येहि गुरु हैं, अर्थात् श्रेष्ठ गुरुराज ऐसेहि होने चाहिये, त्यागी वैरागी सुविहित जैनाचार्य ऐसेहि होतें हैं, इत्यादि प्रसिद्धि खदर्शन परदर्शनके लोकोंमें भड़ और कोई एक दिनके समय लोकोंमें इस प्रकारके सर्व शास्त्र - विशारद श्वेताम्बराचार्य आयें हैं, इस प्रकारकी बडी प्रशंसाकुं सुणके, एक ब्राह्मण जोतिषी पंडितमानी श्रीजिनवल्लभगणिवाचनाचार्यजीके पास में आया, उसको बैठके लिये श्रावकोंनें आसन दिया, इस ब्राह्मणकों श्रीगुरुमहाराजने पूछा कि हे भद्र आपका रहना किस ठिकाणे हैं, कौनसे शास्त्र में तुमारा अभ्यास है, ब्राह्मण बोला रहातो इहांहि है, अभ्यास तो व्याकरण काव्य नाटक अलंकार वगेरे सर्व शास्त्रों में है, वादमे वाचनाचार्यश्रीजिनवल्लभगणिजी बोले कि, होवो, विशेष परिचय कौनसे शास्त्रमें है, ब्राह्मणबोला कि विशेष परिचय जोतिष शास्त्र में है, वादमें वाचनाचार्य श्रीजिनवल्लभगणिजी बोले कि, अछीतरे याद है, तब ब्राह्मणनें कहा, तुमारेकों भी लग्नके विषय में कुछभी क्या परिज्ञान है, तब वाचनाचार्य श्रीजिनवल्लभगणिजीनें कहा कि,
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