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प्रहलादनादि श्रावक समुदायप्रति कहां इये आठ मुंडेवाले दोय मन्दिर करावेगा, और राजके माननीक होगा, यह बात श्रीजिनवल्लभगणिजीने सुणी, दूसरे दिनमें बाहिर स्थंडिल भूमि जाता आचार्यश्रीको मार्गमें चैत्यवासी श्रावक बहुदेवनाम सेठ मिला, तब आक्षेपसहितज्ञानदिवाकरश्रीजिनवल्लभगणि मिश्रनें कहा, हेभद्रबहुदेव गर्वनहिकरणा, इन हमारे श्रावकोंके अन्दरसें कोइकश्रावक धन समृद्धहोकर तुमारे कहे प्रमाणे कार्यकरणेवालाहोगा, और वह तेरेकुं बंधे हुवे कुं छु डावेगा, वह कार्य वैसाहि हुवा, और आचार्यश्रीके प्रसादसें सजन प्रकृतिवाला साधारण नामश्रावक राजाके अधिकतर माननीयहुवा, और वह बहुदेवनामा सेठचैत्यवासीश्रावक राजासंबंधि किसी अपराधमें आनेपर, उस दुष्टमुखवाले सेठके ऊपर नरवर्मराजा नाराजहुवा, और उससेठकुं उंठके साथ बांधा, उंठकी तरह विलाप करते हुवे सेठकुं राजपुरुष धारानगरीमें नरवमराजाके पास लातें हैं, इस अवसर पर धारानगरीमें कोई कार्यके लिये सरलप्रकृतिवाला साधारणनामश्रावक सुविहित पक्षीय गयाहुवाथा, सर्वजगतके लिये समभावसें हितकारी प्रवृत्तिवालासजन साधारणनामा श्रावकने राजपुरुषकों मनाकरके निष्कारण उस सेठका कष्ट हटाकर राजाकुं वीनति करके अंगीकार करी है सजनोंकी चेष्टा जिसनें ऐसा श्रीजिनवल्लभाचार्यका भक्त साधारण नामश्रावकनें राजाका मनमनाकर अपराध आश्रित धन वगेरे देके, इसरांक बहुदेवसेठकुं बंधनसे छुडाया, और उत्साह सहित श्रावकोंने दोयमन्दिरभी बनाना सरु किया,
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