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२७४ उसका भाव गणिजीने जाना योग्यजानके भवनिस्तारणी वैराग्यउत्पन्न करणेवाली संसारसे निर्वेदजननी देशनादिवी जिस्सै गणदेव श्रावक अत्यंतसंविग्न निस्पृही भया तब गणिश्रीने फरमाया हे भद्र क्या स्वर्णसिद्धिकहुं गणदेवने कहा हेभगवन् आपके चरणोंकी सेवा करतां विंशतिद्रव्य (बीश रुपिया) की पूंजीसै व्यापार करतां श्रावकधर्म पालन करुंगा जादाधनउपाधिका मूल है गणदेवमें धर्मवर्धनसामर्थ्यथी इसवास्ते लिखेहुवे द्वादशकुलकग्रंथविशेषदेके सिखाके वागडदेशमें भेजणेका उपदेशकरा बागडमें जाके सब वागडदेशके लोक जिनवल्लभगणिजीके रागी गणदेवश्रावकने किये, श्रीजिनवल्लभगणिजीके व्याख्यानमें सब विचक्षण लोक आते हैं बेठते हैं विशेषतः ब्राह्मण आते हैं अपणा अपणा विद्याविषयि संदेह निवर्तनकेवास्ते, अथ कदाचित् यह गाथा व्याख्यानमें आइ यथा घिजाईण गिहीणय, पासत्थाईण वा वि दट्टणं । जस्स न मुज्झइदिट्ठी अमूढ दिडिं तयं विति ॥१॥
अर्थ-ब्राह्मणजातीय और गृहस्थ और पासत्था वगेरेको देखके जिसकिदृष्टि नहिं मोहप्राप्तहोवे वह अमूढदृष्टिपणा कहाजावे १, ऐसा निःशंकपणे व्याख्यान किया यथावस्थितपदार्थसुनके ब्राह्मणमनमें क्रोधातुरहोके बाहिरनिकलके एकडेमिले तब विरोधिभि निकट भये ब्राह्मणोंने विचार किया श्रीजिनवल्लभगणिजीके साथ विवाद करके निरुत्तर करके प्रभाव नष्ट करेगें बाद यह स्वरूप श्रीजिनवल्लभगणिजीने जाना परंतु मनमें विलकुल भय नहिंभया, कहाजाताहै अपणाकियाभया सिंहनादसै
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