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युवान अवस्थाकों प्राप्त भये । तब शीताको अपहरण करनेवाला, अपना वैरी, लंकाका राजा, रावण प्रतिवासुदेवकों मारके, आठमा वासुदेव बलदेव हुये । इस भरतक्षेत्रके ३ खंडमें राज्य किया, इसमें लक्षमण वासुदेवका नीलावर्ण, सरीर प्रमाण १६ धनुषका हुवा । अंतमें १२ हजार वरपका आयुष्य पूरण करके चोथी नरक पृथ्वीमें उत्पन्न भया । और रामचंद्र बलदेव, अपना भाईका मरण देखके, वैराग्यसें चारित्र ग्रहण किया । क्रमसें केवल ज्ञान पायके, सर्व १५ हजार वरषका आयुष्य पूरण करके, सिद्धगिरी पर्वत ऊपर मोक्ष गया । इसी रामचंद्रजीकों बहुतसे हिंदू लोक, अपना ईश्वरावतार मानते हैं ॥ और रावणकों दशमुखवाला राक्षस कहते हैं, तथा लोकीक रामायणमेंभी रावणके १० मुख लिखे हैं, सो ठीक नहीं हैं, क्योंकि मनुष्यके स्वाभाविकही दशमुख कदापि नहीं होसक्ते हैं, पद्मचरित्रादिकमें लिखा है, कि रावणके बडे बडेरोंकी परंपरासें, एक बडा नवमाणिकरत्नका हार चला आताथा, सो रावणनें वालावस्थासें अपने गलेमें पहनलिया था । और वे नौही माणक बहुत बडे थे। चार चार माणक दोनु स्कंध तरफ जडे हुये थे। एक बीचमेंथा, ऐसें नवमुख माणकमें नया दीखता था, और एक रावणका असली मुख था इसवास्ते दशमुखवाला रावण कहा जाता है। और रावणके समयसेंही हिमालयके पहाडमें बद्री नाथका तीर्थ उत्पन्न हुआ है । तिसकी उत्पत्ति जैन धर्मके शास्त्रोसें ऐसे जानी जाती है, कि यह असली पार्श्वनाथकी मूर्ति थी, तिसकाही नाम बद्रीनाथ रक्खागया है। इसका विशेष
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