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वादमें श्रीमान्अभयदेवसूरिजी अपणे मनमें जाणते हुवे भी किसीकोभी कहें नहिं, और उस समय आपणे मनमें विचारते हुवे कि यह जिनवल्लभगणि हि हमारे पद योग्यहै, परंतु चैत्यवासी आचार्यका शिष्य है, इसलिये गच्छके संमत नहिं होगा यह विचारके गच्छस्थितिवास्ते गच्छधारक श्रीवर्द्धमानसूरिजीको अपणे पट्टमें स्थापे, और श्रीजिनवल्लभगणिजीको श्रीमान् अभयदेवसूरिजीनें अपणे संबंधि उपसंपद दीवी, अर्थात् अपणे शिष्यत्वपणे स्वीकार करणेपूर्वक वेषचारित्र श्रुतस्वाम्नाय योगादिक सातिशय ज्योतिष गुप्तरहस्य वगेरे सर्व प्रकारकी उपसम्पद अपणे नामसें अपणे हाथसें दीया और सूरिमत्रानाय गुप्तरहस्य और गणि वाचनाचार्य आदि पदवी और बहुमानपूर्वक सर्वगुणकलापरिपूर्ण भावसें अपणा मुख्य शिष्य पट्टयोग्य समजकर किसी प्रकारका अन्तरभाव नहिं रखकर योग्यगुणपात्र बनाये, और गुणरत्न सत्वसमूहके आधारभूत क्रमसें भये, और गच्छके कारणसें उसतरे होनेपरभी अवसरकी अपेक्षा करते हुवे, कालक्षेप करा और आचार्यश्री मनमें विचारें कि योग्य अवसर आवे तो वाचनाचार्य श्रीजिनवल्लभगणिको मुख्याचार्य पद देनेमें आवे, इस तरे विचार करते रहै, वादमें अपणा स्वल्पायु होनेसें और योग्य अवसर नहिं आणेसें अपणे हाथसें मुख्याचार्य पद नहिं दे सके सामान्य तरिके गच्छस्थितिनिर्वाहके लिये अपणे पदमें श्रीवर्द्धमानसूरिजीको मुकरर करके श्रीमान् अभयदेवसरिजी अपणे हाथसें वेषश्रुत चारित्ररूप उपसम्पद देके कहा कि-आजसें लेके हमारी आज्ञामें रहेना, सर्वत्र हमारी आज्ञासें हि तुमको प्रवर्तना, ऐसा कहा, और
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