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वाद सातिशायि शानशाली भगवान् श्रीजिनवल्लभग णिवाचनाचार्य बोले, सर्व साधर्मियों में सर्व साधारण स्थितिवाले, हे साधारण श्रावक पुण्यसमूह क्या असाध्य है, अतुलागणना ( प्रमाणरहित गिणति ) मतकर, केवल चणामात्र वेचनेवाले पुरुषभी अगण्य धनके स्वामी होजाते हैं, ऐसा अभिप्राय सहित गुरुमहाराज के वनचसुनके संदेह रहित होकर मनमें विचारा कि कुछने कुछ धनादिककि प्राप्ति जरूर मेरे होगी, और योग क्षेमरूप कल्याण जरूर मेरे होवेगा,
यह साधारण श्रावक पूर्वोक्त मनमें विचारके वादमें मुख विकाश करके साधारण श्रावकनें कहा, जो ऐसा है तो हे भगवान् मेरे एक लाख प्रमाणे सर्व परिग्रहका प्रमाण होवो, तब श्रीगुरुमहाराजनें साधारण श्रावकों सर्वपरिग्रहपरिमाणत्रत उच्चराया, और परिग्रह प्रमाणत्रत ग्रहणकियां वाद, श्रीसद्गुरुमहाराज के चरण कमलोंकी सेवासें, अशुभअन्तरायकर्मकाक्षयोपशम होनेसें प्रतिदिनमें प्रवर्द्धमानसंपदावाला हुवा, विशेषकरके श्रीगुर्वाज्ञामें प्रवृत्ति करता हुवा, वह साधारण श्रावक संपूर्ण श्रीसंघके हरकोई कार्य में सर्वश्रीसंघका मध्यस्थपणें कार्यकरणेंमें तत्परहूवा, और सहकादि श्रावकभी साधारण नामा श्रावककी तरह सर्वत्र हरेक धर्मकार्यों में श्रीजिनवल्लभगणिवाचनाचार्यजीकी आज्ञा करकेहि प्रवर्त्तना शरुकरा, वाद तिस चित्रकूटनगरमें श्रीजिनवल्लभगणिवाचनाचार्यजीनें चतुर्मासकसंबंधि नवमाकल्पकरा और क्रमसे पचास दिनमें संवत्सरीप्रतिक्रमण कियांके वाद में आश्विन मास आया तब आसोजवदि तेरसका श्रीमहावीर देवका गर्भापहार कल्याणक आया सूत्रसिद्ध जाणके, और चैत्यवासीयों करके तिरो
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