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वल्लभ गणिने विकस्वरमान मुखकमलकरके कहा, हे भगवन् यह आपका कहेना बहुत हि उचित है, _ और विवेकका यह हि फल है जो हेय पापादिक वस्तु है उसका त्याग करणा उपादेय अंगीकार करणे योग्य तप संजमादि जो अंगीकारकरणेमें आवे तो श्रेय है, ___ और यह शुभमार्ग अंगीकार करणेकी आपकी तीव्रतर इच्छा है. तो अपणे साथ हि सुगुरुके पासमें चले, यह प्रत्युत्तर सुणके गुरुनें इसके सामने निश्वासा नांखके कहा कि गच्छादिव्यवस्था कियां विना हि चारित्र अंगीकारणा, हे वत्स, ऐसी निस्पृहता हमारी नहिं है, जिस निस्पृहताकरके गच्छादि चिंता करणेमें समर्थपुरुष विना खगच्छ मन्दिर वाडी वगेरेकी चिंता छोडके सुगुरुके पासमें वसतिवास हम अंगीकार करें, इसलिये अवश्य वसतिवास तुमकोहि अंगीकार करना, यह आज्ञावचनश्रवण करके श्रीजिनवल्लभगणिजीने कहा, हे भगवन् ऐसा हि होवो, वादमें गुरु पीछा पलटके आसिकानगरीमे पहुंचा, वाद में श्रीजिनवल्लभगणि भी भूतपूर्वगुरुकीआज्ञासें श्रीअणहिल पुर पाटणकी तर्फ विहारकिया, और क्रमसें विहार करते हुवे वाचनाचार्य श्रीजिनवल्लभगणि अणहिलपुरपाटणपधारे और श्रीमान् पूज्यपाद अभयदेवमूरिजीके चरणकमलोंमें बहुत हि आदरसें विधिपूर्वकवन्दनाकरनेपूर्वक दोनुचरणकमलोंको स्पर्शकर अपणे जन्मको सफलकरा, तब श्रीमान्अभयदेवसरिजीको आपणे मनमें पूर्णसमाधान याने पूर्णविश्वास, उत्पन्न हुवा और विचारा कि जैसे इसकी हमनें परीक्षा करी, वैसाहि यह हूवा,
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