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ऐसा विचारकर, जिनवल्लभनें एक पुस्तककों खोला, वह पुस्तक सिद्धान्तसंबंधि है, उसपुस्तकमें यहलिखा हुवा देखा, साधु मुनिराजोंकों भ्रमरकी तरह गृहस्थोंके घरोंसें बयालीश दोषरहित आहार लेनेकर संजम निर्वाहके वास्ते शरीरकी रक्षा करणी, सचित्त पुष्पफल वगेरे हाथसेंभी स्पर्शना नहिं कल्पे, तो खाणा तो नहिंज कल्पे, और मुनियोंको चतुर्मासकसिवाय एक मास उपरांत एक ठिकाने नियत रहेना नहिं कल्पे, इत्यादि साध्वाचारसंबंधि विचारोंकों देखकर, पंडित जिनवल्लभ अपने मनमें आश्चर्यसहित भया विचार करने लगा कि अहो इति आश्रयें, दूसराहि वह कोई व्रताचार है, जिसकर मुक्ति में जाया जाय है, उससे विरुद्ध यह हमारा आचार है, प्रगट जागा जाता है कि इस आचारकर दुर्गतिरूप गर्त्ता में पडता को भी आधार नहिं होगा, ऐसा मनमें विचार करके, गंभीर वृत्तिकर पुस्तकवगेरेकुं जैसे पहिले रखे थे वैसाहि पीछा रखकरके, गुरुमहाराजकी कहीहूई मर्यादाप्रमाणे सर्व व्यवस्था संभालता हूवा रहा, बाद में आचार्य कितने दिनोंके अनंतर अपaratर्यकरके अपनेस्थानपर पीछाआया, और सर्व व्यarr बरोबर देखके, आचार्य अपने मनमें विचार करा कि कोइभी वस्तुकी हानि तो नहिं हुई, जितनी जिनवल्लभने मठवाडी मंदिर द्रव्यसमूह भंडार वगेरे सर्व वस्तुजात इसके आधीन कीगइ थी उसमे जबतक जिनवल्लभने संभाला तबतक किसीभी वस्तुकी हानि नहिं हू, तिसकारणसे यह जिनवल्लभ सर्वस्व संभालने में समर्थ है सर्वका निर्वाहकरणेवाला है, अतः योग्य है, जैसा विचारा है वैसाहि निश्चययह जिनवल्लभहोवेगा, परन्तु
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