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खगच्छकी शुद्ध प्रवृत्ति बिगाडणेसे और खगुरुकी आज्ञा लोपणेसें, धर्मसागर तथा धर्मसागरपक्षपाताश्रितविजयदेवसूरि आदिकसें, संवत् १६१२ के आसरेमे तपोटमतकी पुष्टी हुइ और इन तपोटमतियोंने तिससमय आगम आचरणा विरुद्ध ६० बोल आसरेका फरक किया, और बादमें तो जादातर फरक किया गया है, एसा मालूम होवे है, और इनहि तपोटमतियोंका खरूपवर्णन, स्वभावगुणवर्णन वगेरेका सत्यार्थ तपोटमतकुट्टनशतकमें लिखा है, और इन तपोटमतियोंके तथा खरतर गच्छवालोंके आगम, आचरणा, प्ररूपणा, आश्रित आपसमें बहुतहि अन्तर है, सो जाणके सत्य स्वीकार करके और असत्यका त्याग करणा यहहि धर्मार्थी प्राणिका प्रथम कर्तव्य है, यह संक्षिप्त आधुनिक तपोटमतका वृत्तांत है, अपिच वडगच्छ, तथा चित्रवाल गच्छ, अपर नाम, तपागच्छ, तथा उपकेशगच्छके प्रायें कर आचरणा, आगम, खस्खआम्नाय, प्ररूपणा, आश्रित आन्तरंगिक अंतर शास्त्र देखनेसें तो श्रीखरतरगच्छवालोंके साथ भेद नहिं है, एसा मालूम होवे है, और प्रायेंकर आपसमे विरोधकाभी कोई कारण नहिं है, और प्रायें अन्य गच्छवाले सबहिने आपसमे मैत्रीभाव रखा है और खरतरगच्छवाले तो अभितक अन्यगच्छवालोंके साथ अवश्यकर मैत्रीभाव रखते हैं, और ऐसाहि सबके साथ हरवखत रखना चाहते हैं, और चला कर प्रथम कबिभी किसीके साथ विरोध भावकी उदीर्णा करणी नहिं चाहते हैं, और पुरुषादानीय श्रीतेवीसमे तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथस्वामिके संतानीय परदेशी राजा प्रतिबोधक श्रीकेशीकुमारजी हवे, श्रीगौतमखामिके साथ मिलाप होणेसें श्रीवीरशासनमें संक्रमण हुवे, वादमें क्रमसें पट्टपरम्परा चलति रहि, और श्रीजम्बुस्खामिके समे श्रीरत्नप्रभसूरिजी चौद पूर्वधारी हुवे, जिनोनें एकवखतमें दोय रूप करके कोरंटक, और औशीयांमे समकालमे प्रतिष्ठा करी, और १३ कोस लांबी और ९ कोस चोडी, एसी ओसीयां नगरी प्रतिबोधके प्रथम, जैनकुलकी तथा ओसवंशकी स्थापना करी, वादमें श्रीवज्रखामिके समय दशपूर्वधर :श्रीभद्रगुप्तसूरिजी हवे, जिणोंके पास श्रीवज्रखामि दशपूर्व भणे हैं, वादमें श्रीलोहित्याचार्यके समय पूर्वधर श्रीदेवगुप्तसूरिजी हवे हैं, जिणोके पास वल्लभीय वाचना करनेवाले, और सिद्धान्तोंको पुस्तकारूढ करनेवाले, श्रीलोहित्याचार्य शिष्य श्रीदेवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणसार्ध एकपूर्व भणे हैं, एसा वृद्धसंप्रदाय है, यह वीरनिर्वाणसे ९८० वर्षे हुवे हैं, इनोके वादमे प्रायेंकर चेत्सवास स्थिति हुइ, वादमें विक्रमसं १०८० के सालमे खगुर्वादिसहित श्रीजीनेश्वरसू
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