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कहामि है, सिद्धांत और तर्कादिक शास्त्रोंका सत्य अर्थ आप जाणतें है तोभि लघुतापूर्वक दूसरोंके पास जाके श्रवण करते हैं इसका कारण यह है कि सज्जन पुरुष गुणोंमे ईषा रहित हि होते हैं, बाद मे द्रोणाचार्यमि श्रीअभयदेवसूरिजी के गुणोंसें रंजित हुवे अपणे सहाय्यके वास्ते आचार्यश्रीकों आसन दिरावे, व्याख्यान करतां द्रोणाचार्यको जहां संशय उत्पन्न होवे, वहां पर तिसप्रकारके नीचे खरसें कहै, जैसे और दूसरे नहिं सुणे, इसतरे निरंतर व्याख्यान करत थकां उन द्रोणाचार्यकों और कोइ दिनमें जिस सिद्धांत का व्याख्यान करे हैं उस सिद्धांतकी व्याख्यान स्थलविषय वृत्ति लाये, और आचार्यश्रीने उस द्रोणाचार्य के हाथमें दी, उस वृत्तिकों देखके अत्यंत आश्चर्यसहित होकर द्रोणाचार्यने अपणे मनमें विचार किया कि अहो इये क्या वृत्ति साक्षात् गणधर महाराजकी बनाइ है अथवा इनोंकी बनाइ हूह है, इसतरे मनमे विचारके द्रोणाचार्यने कहा क्या इये वृत्ति तुमारी बनाई हुई है इसतरे पूछनेपर आचार्य श्रीमौनधारके रहै बादमें द्रोणाचार्यनें अपणे मनमें विचार किया कि निश्चय इसी आचार्य - श्रीने हि या वृत्ति बनाई है, जिससे कहाभि है कि जिसका निषेध न किया वह कार्य माना हुवा होवे है, औरभि कहा है ॥ स्वगुणान्परदोषांश्च वक्तुं प्रार्थयितुं परा,
नर्थिनश्च निराकर्तु सतामास्यं जायते ॥ १ ॥ भावार्थ - उत्तम पुरुष अपणे मुखसे अपणा गुण और दूसरोंका अवगुण कहेणेवाले न होवें, और दूसरे पुरुषोंकों प्रार्थना
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