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२३५ अथवा जागते हो, वादमें आचार्यश्रीनें मंद स्वरसें जबाव दिया कि, हे भगवति! जागताहुं, वादमें देवता बोली हे प्रभो ! शीघ्र उठो, और ये नव सूतकी कोकडी अलुझी भइ है सो आप खोलो 'याने सुलजावो, श्रीसूरिजी बोले कि सुलजानेको में नहिं समर्थ हूं, तब देवता बोलि के हे पूज्य आप कैसे नहिं समर्थ हो ! अभितो आपश्री बहुतकालतकजीवोगा, और नव अंगकी टीका वनावोगा, आचार्यश्रीबोले कि इसतरेका प्रचंडरक्तपित्ति रोगयुक्त शरीर होनेपर कैसे नवअंगकीटीकावनाचुंगा, वादमें शासन देवतानें कहा स्तंभनक पुरमें सेढी नदीके किनारे पर खाखरेके वृक्षके अंदर जमीनमें श्रीपार्श्वनाथ भगवानकी प्रतिमा है, उन प्रतिमा सन्मुख देववंदन करो, जिससें रोगरहित समाधियुक्त शरीरहोवे, ऐसा कह कर शासन देवता अदृश्य भइ, वाद प्रभातमें गुरुमहाराज मिच्छामि दुक्कडं देवेगा, इस अभिप्राय कर दूसरे ग्रामोंसें आये हुवे और उसी ग्राममे रहनेवाले सर्व श्रावक मिलकर आचार्य श्रीके पास आये, उन सर्व श्रावकोंने आचार्य श्रीकों नमस्कार करा, वादमें आचार्यश्रीने कहा कि हमारेकों श्रीस्तंभनक पुरमें श्रीपार्श्वनाथ स्वामिकों वंदना करनी है, आचार्यश्रीका यह वचन सुनकर वादमें सब श्रावकोंने अपने मनमें जाना कि निश्चे आचार्यश्रीकुं किसीका रात्रिमें उपदेश हुवा है, उस्सें इसतरे आचार्यश्री फरमातें हैं, इसतरे श्रावकोनें अपने मनमें विचारके वादमें उन सब श्रावकोने आचार्यश्रीकों कहा कि हमभि सब आपके साथमे आगे वाद उन
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