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हे श्रेष्ठपुरोहित जिसीतरे तुम कहेतेहो उसीतरे शूद्र जातिकों वेदपाठका अधिकार नहिं है परंतु हम शूद्र नहिं है किंतु ४ वेदोंके अध्ययन करणेवाले ब्राह्मण हैं और ब्राह्मणका लक्षण यह है ||
तपसा तापसो ज्ञेयः, ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणः । पापं परिहरंचैव, परिव्राजोऽभिधीयते ॥ १ ॥ व्याख्या - तप करके तापस होवे, ब्रह्मचर्य करके ब्राह्मण होवे, पापका परिहार करता हूवा परिव्राजक कहा जावे ॥ १ ॥ इसतरे पूर्वऋषियोंका कहा हवा ब्रह्मचर्य पालनेके लक्षणसें और अर्थसें हम ब्राह्मणही हैं तब आनंदसहित पुरोहित बोला कि हे यतियो आपलोक कौणसे देशसें इहांपर आयें हैं तब पfuse श्रीजिनेश्वरसूरिजीने कहा हे पुरोहित ? नगरीयोंमे तिलकसमान दिल्लीनामकी नगरीसें हम आयें हैं तत्र पुरोहितनें कहा चक्रादि लक्षणसहित आप श्रीके जैसे मुनिराजरूपी हंसोंके चरण न्यास करके इस नगर में कौनसा वो धन्यवादयुक्त पृथ्वीतल है जो कि आपश्रीनें अलंकृत किया है अर्थात् आपश्री इहां कौनसे स्थानमें उतरे हैं पंडित श्रीजिनेश्वरसूरिजीनें कहा विशाल आतपवाली शालामें हम उतरें हैं पुरोहित बोला कि ऐसी शालामें कैसे उतरे हो पंडित श्रीजिनेश्वरसूरिजीनें कहा पुरोहित मिश्र १ दूसरे सर्वस्थान विरोधियों करके रोकणेसें, पुरोहित बीला शांत प्रकृतिवाले ओर किसीकाभि अपराध नहिं करणे - बाले ऐसे आपश्रीभि कोइ शत्रु हैं, पंडित श्रीजिनेश्वरसूरिजीने कहा हे विप्रवर्य ?
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