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करकों चंदननिमित्तआये हुवे देवनें ब्रह्मशांति यक्ष के साथ संदेशा कहा है, हे भगवन्! हे परमकल्याण योगिन् ! हे पूज्य ! आपसाहिब चारित्र में विशेषउद्यमकरणा, यहहि द्वादशांगीका सार है, और सर्वसारआल पंपाल है, ॥ ३ ॥ उस ब्रह्मशांति यक्षनें अपणे आप जाके यह संदेशा श्रीजिनेश्वरसूरिजी के पास नहिं कहा, तो क्या किया, युगप्रधानका निचे निमित्त प्रारंभ किया उपवास जिसश्रावकनें उसको उठाया, बाद उस श्रावकके वस्त्रके छेडेमे, अक्षर लिखे जैसे, मसटसट, और कहा कि अणहिलपुर पाटणमें जा, जिस आचार्य के हाथ से घोणेसे यह अक्षर जावेगा, वहिआचार्य इसबखत में भारतवर्ष में युगप्रधान है, बाद में उसश्रावकनें पारणाकरके श्री नेमिनाथस्वामिकुं वंदना करके अणहिलपुरपाटणआके सर्वउपाश्रयों में जाके वस्त्र छेडेपर लिखे हूवे अक्षर देखाये, परंतु किसीनें नहिं जाणे, अर्थात नहिं मालूम हुवे, और श्रीजिनेश्वरसूरिजी के उपाश्रय में जाके देखाये तब अक्षरोंकुं वाचके, उत्पन्न हूइ जो प्रतिभा यानें तत्काल विषय, संबंध अर्थग्रहण करणेवाली बुद्धि उससे यह पूर्वोक्त ३ गाथा विचारके श्रीजिनेश्वरसूरिजीनें वे अक्षर धोये, धोणेसे चलेगये, यानें मिटगये, बादमें उस श्राचकनें मनमें विचारा कि यह आचार्य निश्चय युगप्रधान है, इस हेतुसें विशेषश्रद्धान और भक्तियुक्त होकर गुरुपणे अंगीकार किये, और धारानगरी में भोजराजाका पुरोहित सर्वधर नाम था, वहांपर कोइ एकसमें श्रीवर्द्धमानसूरिजी पधारे, तब राजपुरोहितका विशेष परिचयहूवा, तब सर्वधरनें आचार्यमहाराजकुं कहाकि मेरेघरमें बडा
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