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__ और अभयदेव शब्दका अर्थ-खरूप इसतरे लिखाहै अभयदेव-अभयदेव-पु०नवांगवृत्तिकारके, खनामख्याते आचार्य, स्थानांगसूत्रवृत्तौ, (१) तच्चरित्रं त्वेवमाख्यान्ति धारानगरीमें महीधर (धन्ना) शेठकी स्त्री धनदेवी नामहै उसको कूखसे अभयकुमार नामका पुत्ररत्न हुवा, वह अभयकुमार धारानगरी समोसरे हुवे श्रीवर्द्धमानसूरि शिष्य श्रीजिनेश्वरसूरिजीके पास दीक्षाली, कुमार अवस्थामेंहि व्रतलिया और अतिशायिबुद्धिसें १६वर्षकी उंबरमें श्रीवर्द्धमानसूरिजीकी आज्ञासे विक्रमसंवत् १०८८ के सालमें आचार्यपदको प्राप्तहुवे, उस बखतमें दुःकालादि होणेसें पढणे लिखणेके अभावसें सिद्धान्तोंकी वृत्तियां विछेदप्राय हुइथी, तब कोई एकरात्रिके समेमें शुभध्यानमें रहे हुवे अभयदेवसूरिजीकू शासनदेवता आकर बोली के हे भगवन् पूर्वाचार्योंने इग्यारे अंगोपर टीका करीथी, वा तो दोय अंगोंपर रहीहै वाकी टीका विछेदहुई है, इसलिये अबी फेर उण टीकाओंकी रचना करके संघपर दयाभाव लाके अनुग्रहकरणा' आचार्य महाराजने कहा, हे शासनाधिष्ठायिके हे मातः में अल्पबुद्धि, वालाहूं, और यह ऐसा दुष्कर कार्यकरणेकुं में किसतरे समर्थ हो, जिससे वहां पर टीका करणेमें जो कुछभी उत्सूत्र होवे तो महाअनर्थ संसारमें गिरना रूप होवेवादमें देवतानें कहा हे भगवन् आपको शक्तिमान् जाणकेहि मेंने कहाहै, जहांपर आपको संशय होवे, वहां पर उसी समय मेरा स्मरणकरणा, में महाविदेहमें जाके वहां श्री सीमंधरस्वामिकुं पूछके आपकों कहूंगी इसतरे करणे पर कुछ भी उत्सूत्र नहिं होगा, इसप्रकारसे शासनदेवीके उत्साह वढानेपर वह कार्य करणा सुरू किया, वह पूर्वोक्त कार्यकी समाप्ति न होणेपर-पहिलेहि आंबिलकी तपस्या करके और रात्रिमें जागरणकरणेकर धातुप्रकोपसें रुधिरविकाररूपरोग उत्पन्न हुवा, याने रक्तपित्तरोगहूवा, तब उनोंके विरोधिलोकोनें, अर्थात् चैत्यवासी लोकोनें, हरखपूर्वक अपवाद करा के जो यह अभयदेव उत्सूत्र व्याख्यान करताहै, इसलिये शासनदेवी क्रोधातुर होकर इसके शरीर में कोठरोग उत्पन्न कियाहै, उस अपवादको सुणके दुखी हूवे आचार्यकुं रात्रिमे धरणेन्द्रने आयके उस रुधिर. विकाररोगकुं मिटादिया, और कहा के खंभनकगामके पासमें सेढीनदी है, उसके किनारे जमीनमें श्रीपार्श्वनाथस्वामिकीप्रतिमा है, जिसके प्रभावसें नागार्जुनजोगीने रससिद्धि प्राप्त करीथी, उस प्रतिमाको प्रगटकरके वहां महास्तीर्थ आप प्रवर्तावो, वादमें आपकी अपकीर्ति नष्ट होगा, वादमें वहां जाकर श्रीअभयदेवसू.
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