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और वाद में वृत्तिकार अपनेकों शोधनेमें, वा लिखने में सहाय देनेवाले, विद्वान आचार्य मुनियोंका उपकार समजकर, उनका नामादिक स्पष्टतर लिखा है और बेगड खरतरशाखामें, श्रीजिनसिंहसूरिशिष्य श्रीजिनप्रभसूरिकृत श्रीतीर्थंकल्पप्रकरणमें ६ छठा तीर्थंकल्पाधिकारमें लिखते हैं कि श्रीधरणेंद्रकरके सेवितहूवे थके सेतीनदीके तटपर पांचसे वर्षतक श्रीस्तंभनपार्श्वनाथस्वामीरहे देदीप्यमान सर्वोत्कृष्टप्रभाववाले, ऐसे श्रीस्तंभनपार्श्वनाथस्वामीकुं प्रगटकर अपने शरीरमे जो दुष्टकोढरोग के समूहकों दूर हटानेवाले श्रीअभयदेवसूरिजी भये, उनोंनें जयतिहुआण स्तोत्र रचकर इस्तंभन कतीर्थको प्रगट किया, इहांतक अभिधान राजेंद्र कोशअंतर्गत लेखका भावार्थ है
और तपागच्छीय श्रीसोमसुंदरसुरिशिष्य श्री सोमधर्मकृत उपदेशसित्तरि १ और गुजराति जैन इतिहास २ और गणधरसार्धशतक ३ तथावृत्ति, ४ प्राकृतवीरचत्रि ५ श्रीजिनदत्तसूरिकृत गुरुपारतंत्र्य नामक पंचमस्मरण ६ श्रीसमय सुंदरोपाध्यायशिष्यकृत तीर्थकल्पव्याख्या ७ श्रीस्तंभन पार्श्वनाथजी उत्पत्तिका बडास्तवन ८ समाचारिशतक ९ और हीरालाल हंसराजकृत श्रीहरिभद्राष्टकटीका भाषान्तर १० इत्यादि अनेकशास्त्रों में नवांगवृत्तिकारक श्री अभयदेवसूरिजीका खरतर विरुदगच्छ वगेरे प्रगटपणे लिखा है और नवांगवृत्तिकारक श्रीअभयदेवसूरिजी के पट्टमें युगप्रधानपदधारक श्रीजिनवल्लभसूरिजी हूवे, और इनोंके पहमें अंबादत्तयुगप्रधानपदधारक और एक लाख तीस हज्जार घरकुटुंबकुं प्रतिबोधनेवाले, और च्यारनिकाके अनेक देवदेवीयोंकरके सेवित. 5, एकावतारी, बडादादाजी, इसनाम प्रसिद्ध श्रीजिनदत्तसूरिजी हूवे, गणधर सार्धशतकवृत्ति, गुरुपारतंत्र्य पंचम स्मरण, कोटिकगच्छपट्टावली, समाचार दि अनेक ठिकाणे प्रगट लिखा है और धर्मसागरने खरतरगच्छ परद्वेष धारके उ क दोनों महापुरुषों पर द्वेष करके इसतरे कहाकि, नवांगवृत्तिकारक श्री अभयदेवसूरि खरतरगच्छ मे नहिं हूवे, श्रीजिनवल्लभसूरिजी नववृत्तिकारक श्री अभयदेवसूरिजी शिष्यहि नहि हैं, अर्थात् नवांगवृत्तिकारक श्रीअभयदेवसूरिजीके पहमें नहिं हैं श्रीजिनेश्वरसूरिजी सें १०८० में खरतर विरुद नहिं हुवा, अर्थात् श्रीजिनेश्वरसूरिजीकों खरतर विरुद नहिं हैं, श्रीजिनदत्तसूरिजीसें खरतरगच्छ हुवा है फेर कहा कि १२०४ में खरतरकी उत्पत्ति हुई है, और चामुंडक, और औष्ट्रिक आदि शब्दोंसें गच्छके ऊपर ऊपरोक्त दोय महापुरुषोंके ऊपर १५ दत्तसूरि०
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