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२१३ समाधिसहितपरलोकगया, वादमें शोभन जंगमयुगप्रधान कल्पवृक्ष चिंतामणिसे अधिकमनोवांछितपूरणेवाले श्रीवर्धमानसूरिजीके सुशिष्य श्रीमान्जिनेश्वरमरिजीके पास शुभमुहूर्तमे दीक्षाग्रहणकरी,
जैनसिद्धान्तस्वगुरुमुखसें भणके गीतार्थ शोभनमुनिहुवे, वाद उजेणी नगरीके श्रीसंघके पत्रसें, श्रीशोभनमुनिकुं वाचनाचार्यपददेके दोनोंमुनियोंके साथ शीघ्र राजपुरोहितधनपालकों प्रतिबोधनवास्ते भेजे, श्रीशोभनाचार्य गुरुजीकी आज्ञासें उजेणीनगरीमे जाके क्रमसें धनपालकुं प्रतिबोधके धर्ममें स्थिरकरके पीछे श्रीगुरुजीके चरणमें पधारे और धनपालका विशेषाधिकार आत्मप्रबोधग्रंथसे जाणना, इसतरे अनेकप्रकारसें चउवीसमाश्रीमहावीरस्वामितीर्थकरदर्शितधर्मकी बहुतप्रभावना करके वृद्धिको प्राप्त किया, अंतसमे सिद्धान्तविधिपूर्वक अणशणकरके समाधिसहित वर्गनिवासीहवे और प्रभावकचरित्र तथा पट्टावलि वगेरेमे इणोंका चरित्र लिखा है उसमें कुछ कुछ भेद मालूम होताहै सो धारणा भिन्न भिन्न होणेसें, भिन्न भिन्न मतान्तर है और जैनइतिहास, १ हरिभद्राष्टकभाषान्तर, २ मराठीरासमाला, ३ खरतरपट्टावलि संस्कृत ४ तथा भाषा ५ इत्यादि वहुतहि ठिकाणे खरतर विरुद १०८० का लेख है और पंचलिंगी, १ षट्स्थानक, २ कथाकोश, ३ लीलावती कथा ४ प्रमाणलक्ष्मा ५ वगेरे तथा श्रीबुद्धिसागर सूरिकृत व्याकरण वगेरे अनेक ग्रंथ खुदके रचे हुवे और शिष्य प्रशिष्योंके रचे हूवे वर्तमान समयमें उपलब्धहोतेहैं ॥४०॥४१॥ श्रीजिनेश्वरसूरिजीके पट्टपर श्रीजिनचंद्रसरिजी हूवे इनोंके १८
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