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२१२ निधानहै, परंतु मालूमनहिं कहांपरहै, और आपकृपाकर बतायें तो, आधादेवू, तब आचार्य महाराजनें कहा घरका सार आधा देना, पुरोहितवोला ठीकहै, वाद धर्मका लाभजाणके, निधान स्थान देखाया, तब निधानप्रगटहूवा, जब आधा धन देने लगा, तब नहिं लिया, और आचार्यमहाराजने कहाके यह धन तो हमारे बहुत था, परंतु छोडके साधु वेहैं, तब पुरोहितनें कहा कि आपश्रीने आधा केसे मांगा, तब आचार्यमहाराज बोले, कि घरका सार आधा मांगाहै, तबफेरपुरोहितनेकहा कि घरका सारतो धनहै, तब आचार्यमहाराजने कहा घरकासार धननहिं है, किंतु घरकासारपुत्रहै, ऐसासुणके सर्वधरनें मौनधारा, तब आचार्यमहाराज अन्यत्र विहार करगये, पीछेसें सर्वधरके मनमें जैनाचार्यका उपगाररूप करजा, वोही एकशल्य मनमें रहगया, बाद अंतसमे पिताके मनमें असमाधिदेखके धनपाल और शोभन इन दोने पिताकुं असमाधिकाकारण पूछा तब पिता सर्वधर बोला कि अहो पुत्रो मेरे ऊपर एक जैनाचार्यका उपकारका ऋण है वहि एक असमाधिका कारण है दूसरा कोई कारणनहिं है यह मेरे मनमे असमाधिहै सो तुम दोनुमेंसें एक जैनाचार्यके पास जैनीदीक्षा लेवो तब मेरा ऋणउतरे और मेरे मनमें समाधिहोवे, और किसी हालतसें मेरेकुं समाधि नहिं होवे, ऐसा पिताका वचन सुणके धनपाल तो मौनधारके रहा और शोभन पिताका विशेषभक्त और विशेषविनीतहोणेसें, इसतरे नम्रहोके पिताकुं बोला हेपिताश्री निश्चे आपका वचन में पालुंगा, ऐसा शोभनका वचनसुणके, सर्वधरपुरोहितविशेष
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