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२०८.
प्रसन्नचंद्र ५ धर्मदेव ६ सहदेव ७ सुमति ८ वगेरह बहुत शिष्य हुवे बादमे श्रीवर्द्धमानसूरिजी स्वर्गवासी हूवे, पीछे श्रीजिनचंद्र, जिनाभयदेव, इन दोनोंकों विशेष गुणवान् और योग्य पात्र जाणके सूरिपद में स्थापित कीये, क्रम करके युग प्रधान हूवे, औरभी दो आचार्य बनाये, श्रीधनेश्वसूरिः ( अपर नाम श्रीजिनभद्रसूरि : ) है, १ श्रीहरिभद्रसूरिः २ तथा उ० श्रीधर्मदेवगणिः, १ उ० सुमतिगणिः, २ उ० श्रीविमलगणिः, ३ यह ३ उपाध्याय की, और श्रीधर्मदेव उपाध्याय, श्रीसहदेवगणिः, यह दोय सगे भाइ होवें है, श्रीधर्मदेव उपाध्याय जीनें ३ निज शिष्य बनाये, हरिसिंह, सर्वदेवगणिः, यह २ भाइ होवें है, ३ पंडित श्रीसोमचंद्रमुनिः, और श्रीसहदेवगणिजीनें अशोकचंद्र नामें निजशिष्य किया, वह अशोकचंद्र अत्यंत वल्लभ था, उसको श्रीजिनचंद्रसूरिजीनें विशेष भणायके, आचार्यपद में स्थापित किया, और श्रीअशोकचंद्रसूरिजीनें अपनें पट्टपर श्रीहरिसिंह रिजीकों स्थापित किये, औरभी दोय आचार्य बनाये, श्रीजिनप्रसन्नचंद्रसूरिजी, श्रीजिनदेव भद्रसूरिजी और श्रीजिनदेवभद्रसूरिजी तो श्रीसुमति उपाध्यायजी के सुशिष्य थे, और श्रीजिनप्रसन्नचंद्रसूरिजी वगेरे च्यारकुं श्रीजिनाभयदेवसूरिजीनें तर्कादिशास्त्र भणाये, इसिहीसें श्रीजिनवल्लभसूरिजीनें श्रीचित्रकूटीयप्रशस्तिमे कहा है, ।। सतर्कन्यायच चर्चितचतुरगिरः श्रीप्रसन्दुसूरिः, सूरिश्रीवर्द्धमानो यतिपतिहरिभद्रो मुनी देवभद्रः, इत्याद्याः सर्वविद्यार्णवकलशभुवः संचरिष्णुरुत्कीर्तिस्तंभायन्तेऽधुनापि श्रुतचरणरमाराजिनो यस्य शिष्याः ॥ १ ॥
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