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संथारा आसण उच्चार प्रश्रवण भूमी सहित स्त्री पशु वर्जित ऐसे उपाश्रय में साधु रहै जिनमंदिरमें नहि रहै यह वचन श्रीदुर्लभ राजाके मनमे बहुत रोचक हुवै, राजा बोले अहो ये जो कहते है सो सर्व सत्य है तब सब अधिकारियोंने जाना अपने गुरु सर्वथा निरुत्तर होगये है, वाद दिवान वगेरे बोले महाराज ! चैत्यवासी हमारे गुरु है आप मानते है न्यायवादी राजा यावत् न बोले उतने जिनेश्वरसूरि बोले हे महाराज ? कोइ मंत्रिका गुरु हैं कोइ भंडारिका गुरु है कोइ माडविकका गुरु है सबके स्वामी आप है हमारा इहां कोण भक्त है, राजा बोले में आपका भक्तहुँ, मैंने आपकुं गुरु कियै, वाद और राजा बोले सर्व गुरुवों के सात सात गद्दी और हमारे गुरु नीचे बैठे यह कैसा, जिनेश्वरसूरि बोले हे महाराज ! हमकुं गद्दीपर बैठना नहि कल्पै राजा बोले क्युंन कल्पै आचार्य बोले महाराज ! गद्दीपर बैठणेसै असंयम होवै है भवति नियतमत्रा संयम इत्यादि श्लोकार्थका व्याख्यान किया, राजा बोले आप कहां रहते है? आचार्य बोले, महाराज विरोधियोंने स्थान रोका है सो कहांसे स्थान मिले, राजा बोले हे अमात्य बजारमे बहुत बडा अपुत्रियेका घर हे वो इशुंकुं रहणेकों देवो, वाद राजा बोले भोजन कैसे होता है तब पुरोहित बोला हे देव इण महापुरुषोंके लिये क्या कहैं
लभ्यते लभ्यते साधुः, साधुश्चैव न लभ्यते । अलब्धे तपसो वृद्धि, लब्धे देहस्य धारणा ॥ १ ॥ अर्थ आहार मिलेतो ठीक नहि मिलेतोभी अच्छा कारण नहि
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