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गुजरातादि देशोंमे विहार करते हुवे, कोई कुछभी कहेोकुं समर्थ न होवे, वाद शुभ लग्रमे श्रीवर्द्धमानसूरिजी महाराजने पंडित श्रीजिनेश्वर गणिजीकुं सूरिमंत्र देकर अपणे पदमे स्थापित कीये, दूसरे भाईकोभी आचार्य पदमे स्थापित करा, और उणोंकी बेनको महत्तरा पद दीया और इणोंका मूल नाम जिनदास, बुद्धिदास, सरस्वती, था वादमे ३ जीव पुन्यवान् विनीत होणेसे स्वल्प कालमे गीतार्थ भये, वाद पंडित, गणि आदि क्रमसें पदवी प्राप्त करी, और श्रीगुरु महाराजकुं चारित्रपक्षमे ज्ञान पक्षमे शासनोन्नति वगेरे धर्मकार्यों मे परिपूर्ण साहायक भये और गुजरातमे अणहिलपुर पाटणके प्रथम शास्त्रार्थमे परिपूर्ण सहायक भये, वाद योग्य पात्र स्वसमय परसमय के परिपूर्ण वेत्ता शासनोन्नति करणेवाले, युगप्रधान पद धारक होगा ऐसा विचारके श्रीगुरुमहाराजने कोइ एक समय शुभ लग्नमे पूर्वोक्त ३ जनकों क्रमसें पदस्थ करके अपने गच्छमे अधिकारिकीये वाद श्री - जिनेश्वरसूरि, बुद्धिसागरसूरि, कल्याणवती महत्तरा, इसनामसें सर्वत्र प्रसिद्ध भये, बाद गुजरातादि देशोंमें अलग विहार करणे कीआज्ञा दीवी ३ जनकों, तब तीनुं जन श्रीगुरुमहाराजकी श्रेष्ठ आज्ञा पाकर अपणे २ समुदाय सहित गुजरात देशमे विचरणें लगें, पीछे श्रीवर्द्धमानसूरिजीनें १३ अथवा ३० बादशाहोंसें मान पाया हुआ चंद्रावती नगरी स्थापक, पोरवाड गोत्रीय, श्रीविमलमंत्रीकों प्रतिबोध देके जैनधर्मी अपना श्रावक किया, और विच्छिन्न हुवे आबु तीर्थकों प्रगट करनेका उपदेश किया, तब
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