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ताकी बुद्धिसे पूजते है अन्यतीर्थीयोंके ग्रहणकरणेसै जिनप्रतिमावनी है तीर्थ विच्छेद नहीं होता है तब व्यर्थ चैत्यवासमें रहणेसैं क्या प्रयोजन है इसवास्ते तीर्थअव्यवच्छेदकार्यसे मोक्षादि फलसिद्धी नहीहै क्यों कि मिथ्यादृष्टिपरिग्रहीत जिनबिंबोंकुं मोक्षमागैका अंग नहीं कहा है मिच्छदिहि परिग्गहिआ ओ पडिमा ओ भावगामोन हुंति
मिथ्यादृष्टिपरिगृहीत जिनप्रतिमा भावशुद्धिका कारण न होने इति ॥ अब दूसरा विकल्प कहते है वोहि तीर्थअव्यवच्छेद अंगीकारकरो मोक्षमार्गहोनेसे चैत्यवास अंगीकारसै क्या प्रयोजन है सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी अनुवृत्तिविना जिनघर बिंबके सद्भावसेभि तीर्थोच्छेदहोता है, इसी कारणसे तीर्थंकरोंके कितनेक आंतरोंमे रत्नत्रयी न रहणेसे कहांभी जिनप्रतिमाके संमवमेंभी तीर्थविच्छेदकहा है, स्वयं कल्पिततीर्थअव्यवच्छित्ति आगममें विसंवादि होनेसे व्यर्थही है, और सुनो जिनगृहादि अनुवृत्ति तीर्थअव्यवच्छित्ति होवे तोमि यतियोंका चैत्यमें रहना और जिनगृहादि अनुवृत्ति इनदोनुंका श्यामसमैत्रतनयत्वसदृश प्र. योज्यप्रयोजकमाव नहि वनताहै सो देखातेहै श्यामदेवदत्तहैं मैत्रतनय होनेसै इहां श्यामत्वमैं मैत्रतनयस प्रयोजक नहीं है, किंतु साकादिआहारपरिणतिलक्षणउपाधि श्यामत्वमें है परंतु यतियोंका चैत्यमें रहणाप्रयुक्तअनुवृत्ति नहि है कारण जिन घरमें रहतेमि साताशील होनेसे जीर्णचैत्यकी जीर्णोद्धारकी चिंता न करणेसै चैत्यअनुवृत्ति नहि रहै, किंतु चैत्यचिंताप्रयुक्त
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