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स्सपरीभोलाइहां नहीं मान्यता कर
असिद्धनही है, जिनगृहमें रहते देवद्रव्यका उपभोग होता है सोने बैठने भोजनवगेरे करणेसै अनेक भवमें भयंकरफलअवश्य होता है ॥ १ ॥ विरुद्ध हेतुभी नहि है मुनियोग्यता कर व्याप्यत्वमें विरुद्ध हेतु होता है ऐसा इहां नहीं है ॥
देवस्सपरीभोगो, अणंत जम्मेसु दारुणविवागो। जं देवभोगभूमी, वुड्डी न हु बट्टइ चरित्ते ॥१॥
देवद्रव्यका परिभोग अनंतभवमे दारुण विपाकवाला होता है, जो देवभोगभूमी (जिनमंदिरकी भूमी) में रहै उसके चारित्रकी वृद्धि नहि होवै अर्थात् चारित्री न हो ऐसा सिद्धांतमें कहा है देव भूमीमें रहते यतिके चारित्रके अभावसै भयंकर फल कहा है ॥२॥ सत्प्रतिपक्षभी नही है आगमोक्तत्वात् यह वादीके प्रतिबल अनुमानको पहलेहि खंडन किया है ॥ ३ ॥ बाधित विषयभी हेतु नहि है प्रत्यक्षादिकसै अपहृत विषय न होनेसै "प्रत्यक्षसै हि इसवक्त जिनगृहमे रहना देखणेमें चैत्यवासके धर्मी मुनिअयोग्यता साध्यधर्महेतुविषयको बाधित होनेकर विषयापहारसै कैसे हेतुबाधितविषय नहि है ? ऐसा नहि कहना" इसवक्तमे मुन्याभासोका जिनगृहमे रहना देखणेसभि चैत्यवासको मुनि अयोग्यता बाधितपणा नहि है इसकारणसै हेतुकुं विषयापहारके अभावसै बाधित विषयता नही है ॥ ४ ॥ इसलियै चैत्य मुनियोंके उपभोग योग्य है आधाकर्मादि दोषरहित होनेसै असा तुमारा हेतु उक्तन्यायसै मुनियोंको चैत्योपभोगभोग्यता देवद्रव्य उपभोगादि दोषों करके आगममे बाधित होनेसै कालात्ययापदिष्ट
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