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अथ चतुर्थसर्गः।
नमः श्रीवर्द्धमानाय, श्रीमते च सुधर्मणे,
सर्वाऽनुयोगवृद्धेभ्यो, वाण्यै सर्वविदस्तथा॥१॥ अज्ञानतिमिरांधानां, ज्ञानांजनशलाकया,
नेत्रमुन्मीलितं येन, तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥२॥ सूरिमुद्योतनं वन्दे, वर्द्धमानं जिनेश्वरं,
जिनचंद्रप्रभुं भक्त्याऽभयदेवमहं स्तुवे॥३॥ ३८ श्रीनेमिचंद्रसरिजीके पट्टपर, श्रीमान् उद्योतनमूरिजी हुवे, इणोंसें ८४ गच्छकी स्थापना हुइ, इहांपर ८४ गच्छोंका किंचितस्वरूप लिखते है, वाचनाचार्य श्रीमान् पूर्णदेवगणि प्रमुखका वृद्धसंप्रदाय यह है कि श्रीमान् उद्योतनसरिजी महाराजकुं शुद्ध क्रियापात्र बडे प्रतापिक विद्वान् जाणके और ८३ साधुवोंका शिष्य आयके महाराजकेपास पढने लगे, और तिस अवसरमें एक अंभोहरनामा देशमें जिनचंद्रनामें आचार्य शिथलाचारी चैत्यवासी ८४ चैत्योंका मालिकथा, उसके व्याकरण तर्क छंद अलंकार प्रमुखमें अत्यंत विचक्षण, शरदऋतुका चंद्रमाके प्रकाश स. मान उज्वल यशवाला, और अत्यंत निर्मल मनवाला, वर्द्धमान नामें प्रधान शिष्य था, उसके प्रवचन सारोद्धारादि आगम वाचतां जिनचैत्यकी ८४ आशातना आइ, वे आशातना यह है
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