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हरणादि लिंग करके और अवधृत रूप धारके फिरुंगा, ऐसे कह कर गच्छकों छोडके नगरादिकोंमें पर्यटन करने लगे, बारा वर्षके पर्यंतमें उज्जयन नगरीमें महाकालके मंदिरमें शेफालिकाके फूलों करके वस्त्ररंगे पहने हुए सिद्धसेनजी जाके बैठा, तब पूजारी प्रमुख लोकोंने कहा तुम महादेवकों नमस्कार क्यों नहीं करता सिद्धसेन तो बोलतेही नहीं हैं ऐसें लोकोंकी परंपरासें सुनकर विक्रमादी त्यनेभी तहां आकर कहा "क्षीरलिलिक्षो भिक्षो किमिति त्वया देवो न वंद्यते" तब सिद्धसेननें कहा मेरे नमस्कारसें तुमारे देवका लिंग फट जायगा फेर तुमकों महादुःख होवेगा, मैं इस वास्ते नमस्कार नही करता हूं तब राजानें कहा लिंग तो फट जानेदो परंतु तुम नमस्कार करो पीछे सिद्धसेनजी पद्मासन बैठके कहने लगा, तथाहि ॥ श्लोक इंद्रवज्रा वृत्त ॥ स्वयंभुवं भूतसहस्रनेत्र, मनेकमेकाक्षरभावलिंगं ॥ अव्यक्तमव्याहतविश्वलोक, मनादिमध्यांतमपुण्यपापं ॥१॥ इत्यादि प्रथमही श्लोक पढनेसें लिंगमेंसें धुंआ निकला. तवलोक कहने लगे शिवजीका तीसरा नेत्र खुला है, अब इस भिक्षुकों अभिनेत्रसें भस्मकरेगा, तब तो विजलीके तेजकी तरें तडतडाट करता प्रथम अग्नि निकला, पीछे श्रीपार्श्वनाथजीका बिंब प्रगट हुआ, तब वादी सिद्धसेननें कल्याणमंदिर नवीन स्तवन करके क्षमापन मांगा तव राजा विक्रमादित्य कहने लगा कि हे भगवन् यह क्या अदृश्यपूर्व देखने में आया यह कौनसा नवीन देव है और यह प्रगट क्यों कर हुआ, तब सिद्धसेनजीने कहा, अवंतीसुकुमालका पुत्र महाकालने पिताके नामसें
तबलोक कहादि प्रथमही विश्वलोक, महाननेत्र,
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