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Achar
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अब चार श्लोक तुम सुनो ॥ "अपूर्वेयं धनुर्विद्या, भवता शिक्षिता कुतः॥ मार्गणौधः समभ्येति, गुणो याति दिगंतरे ॥१॥ सरस्वती स्थिता वक्रे, लक्ष्मीः करसरोरुहे ।। कीर्तिः किं कुपिता राजन् येन देशांतरे गता ॥२॥ कीर्तिस्ते जातजाव्येव, चतुरंभोधिमजनात् । आतपाय धरानाथ, गता मार्तडमंडलं ॥३॥ सर्वदासर्वदोसीति, मिथ्या संस्तूयसे जनैः ॥ नारयो लेभिरे पृष्ठं न वक्षः परयोषितः ॥४॥" तव यह चारों श्लोक सुनके राजा बहुत खुश हुआ, और आचार्यकों कहने लगा, जो मेरा राज्यमें सार है, सो मांगो तो देदेउं, तब आचार्यनें कहा मुझेतो कुछभी नहीं चाहता, परंतु ओंकार नगरमें चतुर्द्वार जैनमंदिर शिवमंदिरसे उंचा बनाओ, और प्रतिष्ठाभी कराओ, तब राजानें वैसेंही करा तब जिनमत प्रभावना देखकें संघ तुष्टमान हुआ, इत्यादि प्रकारसें जैनधर्मकी प्रभावना करते हुए दक्षिणदेशमें प्रतिष्ठानपुरमें जाकर अनशन करके देवलोक गये, तब तहांसें संघने एक भट्टकों सिद्धसेनकी गच्छपास खबर करनेकों भेजा तिस भट्टने सूरियोंकी सभामें आधाश्लोक पढा
और वार वार पढताही रहा, वो आधाश्लोक यह है:-स्फुरंति वादिखद्योताः सांप्रतं दक्षिणापथे ॥ जब वार बार यह अझै श्लोक सुना तब सिद्धसेनकी बहिन साधवीने सिद्ध सारस्वत मंत्रसें अद्धे श्लोक पूरा करा । नूनमस्तंगतो वादी सिद्धसेनो दिवाकरः ॥१॥ पीछे भट्टनें सर्व वृत्तांत सुनाया, तब संघकों बडा शोक हुआ ॥ इति सिद्धसेन दिवाकरका प्रसंगसे संबंध कथन करा ॥
यह श्रीआर्य सुहस्ति आचार्य तीस वर्ष गृहस्थावासमें रहे, और
अईसना तब सिद्ध दक्षिणापथे ॥श्लोक यह हालाक पढा
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