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वर्षका हुआ तब इस ओंकार नगरके शिवभवनके अधिकारी भरटने देखा और अपना चेला बना लीया, एकदा प्रस्तावे कान्यकुब्ज देशका आंखोंसें आंधा राजाने दिग् विजय कार्यसें तहां पडाव करा तव रात्रिमें उस छोटे चेलेकों शिवभक्त व्यंतर देवतानें कहा कि शेषभोग राजाकों देना उसकी आंख अच्छी हो जावेगी तैसेंही करा तिस्से राजाकी आंख अच्छी होगई तब राजाने सो गाम मंदिरके खरच वास्ते दीये और यह बड़ा ऊंचा जो शिव का मंदिर है सोभी उसीने बनवाया, और हम इस नगरमें रहते हैं परंतु मिथ्या दृष्टियोंके बलवान् होनेसें हम जिनमंदिर बनाने नही पाते हैं इस वास्ते आपसे बीनती करते है, कि इस मंदिरसें अधिक हमारा मंदिर यहां बने तो ठीक है, और आप सर्वतरेंसें समर्थ हो तिनका वचन सुनकर वादींद्रने अवंतीमें आकर चार श्लोक हाथमें लेकर विक्रमादित्यके द्वार पास आये, दरवाजे दारके मुखसें राजाकों कहाया “दिदृक्षुर्भिक्षुरायात । स्तिष्ठति द्वारवारितः । हस्तन्यस्तचतुःश्लोकः । उतागच्छतु गच्छतु ॥१॥" तिस श्लोककों सुनकर विक्रमादित्यनें बदलेका श्लोक लिखकर भेजा "दत्तानिदशलक्षाणि, शासनानिचतुर्दश ॥ हस्तन्यस्तचतुःश्लोकः ॥ उतागच्छतु गच्छतु ॥ २॥" तिस श्लोकको सुनकर आचार्यनें कहा भेजा कि, भिक्षु तुमकों मिला चाहता है, परंतु धन नहीं लेता, तब राजाने सन्मुख बुलवाये और पिछानके कहने लगा, कि गुरुजी बहुत दिनों मैं दर्शन दीया, तब आचार्य कहने लगे धर्मकार्यके कारणेसें बहुत दिन हुये चिरसें आना हुआ,
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